मानव शरीर में परमात्मा का सच्चा प्रतिनिधि

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छान्दोग्य उपनिषद् का मुख्य विषय ओ३म् का उच्चारण है। उपनिषद् की कथा के अनुसार देवताओं ने जब नासिका की घ्राण शक्ति को ओ३म् का प्रतीक मानकर उसकी उपासना करने की सोची तो असुरों ने उस घ्राण शक्ति को बींध दिया।
पाप से बींध जाने के कारण घ्राण शक्ति में सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों को सूंघने का काम शामिल हो गया। इसके बाद देवताओं ने वाणी को ओ३म् की उपासना का प्रतीक माना तो असुरों ने उसे भी बींध दिया।

पाप से बिंधने के कारण वाणी में भी सत्य और असत्य दोनों तरह के वाक्यों का उच्चारण शामिल हो गया। इसलिए वाणी भी ईश्वर की स्तुति का माध्यम बनने के अयोग्य हो गई।

देवताओं ने बारी-बारी से चक्षु, श्रोत्र और मन को प्रतीक बनाने का प्रयास किया तो असुरों द्वारा इन सारी इन्द्रियों को बींध दिया। इसके उपरान्त देवताओं ने मुख में रहने वाले प्राण को ईश्वर की स्तुति अर्थात् ओ३म् के उच्चारण का माध्यम बनाने का प्रयास किया।

इस प्रयास में मुख वह स्थान था जहां प्राणों के द्वारा ओंकार अर्थात् ओ३म् का उच्चारण किया जाना था। मनुष्य का मुख जो कुछ भी ग्रहण करता है उसे शरीर को सौंप देता है। किसी भी वस्तु को अपने पास नहीं रखता। इस निःस्वार्थी प्रकृति के कारण ईश्वर स्तुति का स्थान मुख को बनाया गया।

ओ३म् के उच्चारण का माध्यम प्राण को बनाया गया वह दिन-रात चलता हुआ, बिना थके शरीर को जीवन प्रदान करता है। अतः प्राण, मनुष्य के जीवन के लिए परमात्मा का सच्चा प्रतिनिधि माना जा सकता है।