‘जब अटल जी को पुत्री नमिता मुखाग्नि दे रही थी, तब आसमान की आंखें भी जैसे छलछला आईं’

पैंतीस वर्ष के पत्रकारिता जीवन में मैंने किसी भी राजनेता के लिए भावनाओं का ऐसा सैलाब उमड़ते हुए नहीं देखा है, जैसा अटल जी के लिए देखने को मिला है।

New Delhi, Aug 19 : विगत ग्यारह-बारह वर्ष से वह आंखों से ओझल थे। कभी किसी सार्वजनिक समारोह का हिस्सा नहीं बने। इन वर्षों में उनका कोई बयान भी नहीं आया। वह अस्वस्थ चलते रहे। चिकित्सकों की निगरानी में उनका उपचार चलता रहा। उनके जन्म दिन पच्चीस दिसंबर को हर वर्ष मीडिया में यह खबरें देखने पढ़ने को जरूर मिलती रही कि प्रधानमंत्री और दूसरे नेता उनके आवास पर पहुंचे और कुशलक्षेम पूछकर लौट गए। हां, तीन साल पहले 2015 में देश को उनकी एक झलक देखने को जरूर मिली थी, जब तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से विभूषित करने के लिए स्वयं चलकर उनके सरकारी आवास 6 ए, कृष्ण मेनन मार्ग पहुंचे थे।

खासकर राजनेताओं के बारे में यह धारणा बन गई है कि यदि दस-पांच दिन वह सुर्खियों में न रहें तो लोग उन्हें भूलने लगते हैं, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के देहावसान के उपरांत जिस तरह संपूर्ण राष्ट्र में शोक की लहर देखी गई और उन्हें अपनी पुष्पांजलि अर्पित करने के लिए दिल्ली की सड़कों पर जैसा हुजूम उमड़ा, वह अभूतपूर्व है। बारह साल तक लोगों की आंखों से ओझल रहने वाले किसी राजनेता के लिए लोगों का प्यार दिल्ली की सड़कों पर इस कदर देखने को मिलेगा, किसी ने कल्पना नहीं की थी। हर तरफ नजर दौड़ाकर देख लें। उनके जितना लोकप्रिय नेता मिलना मुश्किल है। उनकी यात्रा में शामिल व्यक्तियों की ही नहीं, देश भर में टीवी पर उनकी अंतिम यात्रा को सजीव देख करोड़ों लोगों की आंखें भी नम भी थी।

पैंतीस वर्ष के पत्रकारिता जीवन में मैंने किसी भी राजनेता के लिए भावनाओं का ऐसा सैलाब उमड़ते हुए नहीं देखा है, जैसा अटल जी के लिए देखने को मिला है। इस बीच कई राजनेता और पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत हुए हैं, जिनमें मोरारजी देसाई, विश्वनाथ प्रताप सिंह, इंद्र कुमार गुजराल, चंद्रशेखर, चौधरी चरण सिंह और चौधरी देवीलाल सरीखे नेता शामिल हैं परंतु किसी की अंतिम यात्रा में दर्शनार्थियों का ऐसा भावनात्मक उफान देखने को नहीं मिला। 1984 में प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए इंदिरा गांधी की उनके सुरक्षाकर्मियों ने हत्या कर दी थी और मई 1991 में राजीव गांधी को लिटटे आतंकवादियों ने श्रीपेरूम्बदूर में विस्फोट से मार डाला था।

दोनों मां-बेटा हिंसा का शिकार हुए थे। इसलिए उनकी अंतिम यात्रा में भावनाओं का जबरदस्त उफान था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद तो दिल्ली, कानपुर सहित देश के कई हिस्सों में सिखों के खिलाफ जबरदस्त हिंसा भी हुई थी, जिसमें तीन हजार से अधिक लोग मारे गए थे। अटल बिहारी वाजपेयी की बात करें तो 93 वर्ष की आयु में उनका शरीर कुदरती तौर पर पूरा हुआ है और एक दशक से वह राजनीतिक पटल से ओझल भी थे। इसके बावजूद यदि उनकी अंतिम यात्रा में गांधी जी की तरह जन सैलाब उमड़ा है तो बिल्कुल साफ है कि वह देश के सर्वाधिक लोकप्रिय राजनेताओं में शुमार रहे हैं। लोग उन्हें कभी नहीं भूले और आगे भी भूलने वाले नहीं हैं।

उनका गमन और अंतिम यात्रा कई मायने में अभूतपूर्व रहे हैं। कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं रहा, जिसने भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता के देहावसान पर गहरी संवेदना व्यक्त नहीं की हो। देश का शायद ही कोई ऐसा नेता रहा हो, जो पार्टी प्रमुख हो और उन्हें अंतिम नमन करने न पहुंचा हो। जो नहीं पहुंच सके, उन्होंने अपने सीनियर नेता को भेजा। सिर्फ वही लोग उनके अंतिम दर्शनों के लिए तांता लगाकर घंटों धूप में खड़े नहीं हुए, जिनका कभी न कभी उनसे वास्ता रहा। हर उम्र के ऐसे असंख्य स्त्री-पुरुष उन्हें अपनी पुष्पांजलि अर्पित करने पहुंचे, जिन्होंने बस अटल जी की भाषण देते हुए वीडियो यूट्यूब पर देखी या उनके बारे में बस सुना कि वह कैसे नेता रहे हैं। उनकी लोकप्रियता का क्या आलम रहा है, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब उनकी पार्थिव देह भाजपा मुख्यालय पहुंची तो दर्शन करने वालों की भीड़ डेढ़ किलोमीटर दूर तक कतार लगाकर खड़ी थी। जब नौजवान युवक युवतियों को लगा कि उनका नंबर नहीं आएगा, तब वे मुख्य द्वार के ऊपर से भाजपा मुख्यालय में कूदने शुरू हो गए।

देश में ऐसे मंजर कभी नहीं देखे गए कि कोई प्रधानमंत्री करीब साढ़े चार पांच किलोमीटर तक किसी राजनेता की अंतिम यात्रा में उस वाहन के पीछे पीछे जन सैलाब और दूसरे नेताओं के साथ तपती हुई दोपहरी में सड़क पर चुपचाप चलता रहा हो। भारत जैसे देश के प्रधानमंत्री की सुरक्षा को लेकर किस कदर खतरा है, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या हमलों में हुई हैं। ऐसे में नरेन्द्र मोदी यदि अपने नेता को अंतिम विदाई देने के लिए इतना बड़ा खतरा उठाकर भी डेढ़ घंटे से अधिक समय तक भीड़ के सात सड़क पर चलते रहे तो आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि अटल जी के प्रति उनके मन में कितना आदर रहा है। उन्होंने जो ब्लाग लिखा है, उसमें भी अपने मनोभावों को अभिव्यक्त किया है। और अकेले प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं चल रहे थे, सोलह राज्यों के मुख्यमंत्री भी उनके साथ पैदल चल रहे थे।

अंत्येष्टि स्थल का दृश्य भी कम भाव-विभोर करने वाला नहीं था। सेना के एक अधिकारी ने जब अटल जी के शव केस पर लिपटे तिरंगे को उनकी नातिन निहारिका को सौंपा तो वहां मौजूद असंख्य लोगों की आंखें भर आईं। जिस समय उनकी दत्तक पुत्री नमिता उन्हें मुखाग्नि दे रही थी, तब आसमान की आंखें भी जैसे छलछला आईं। हल्की बूंदा-बांदी होने लगी। ऐसे दृश्य कहां देखने को मिलते हैं, जब प्रकृति भी किसी के जाने पर रुआंसा हो गई हो। अटल जी चौदह साल पहले 2004 तक प्रधानमंत्री थे परंतु उनका पड़ोसी देशों में इतने वर्षों के उपरांत भी किस कदर सम्मान है, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से उनके विदेश मंत्री और भूटान के राजा खुद उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए अंत्येष्टि स्थल पर पहुंचे थे। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अटल जी के करीबी सहयोगी रहे लाल कृष्ण आडवाणी भी उन शख्सियतों में शामिल थे, जो अटल जी को नमन करने पहुंचे थे।

(वरिष्ठ पत्रकार ओमकार चौधरी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)