‘देशद्रोही शब्द इतनी आसानी से इस्तेमाल किया जा रहा है, कि ये अपना मतलब ही खो रहा है’

जिन्होंने आज़ादी के आंदोलन में कोई योगदान नहीं किया, जो मुखबिरों की विरासत के लोग हैं वो आज बाकी सब को देशद्रोही करार दे रहे हैं।

New Delhi, Aug 07 : न जाने लोग अपनी सोच से इतर कोई बात सुनते ही गुस्सा क्यों होने लगे हैं. पहले ऐसा नहीं था. लोग अपनी बात कहते थे दूसरे की बात सुनते थे, बहस भी करते थे लेकिन कोई सहमति न बने तो भी एक दूसरे को गाली दिए बगैर चुपचाप अपने अपने रस्ते निकल लेते थे. जब हम छोटे थे, कॉलेज के समय भी, कम्युनिस्टों खासकर नक्सलियों को चीन या रूस का एजेंट बताते हुए हमने लोगों को सुना है.

लेकिन तब लड़ाई सिर्फ कॉंग्रेसियों और वामपंथियों के बीच थी इसलिए कोंग्रेसी गाहे बगाहे ये आरोप लगाते दिख जाते थे, पर दबी जुबान में. मुझे याद नहीं कि कभी नेहरू जी, शास्त्री जी, इंदिरा जी या किसी और बड़े कोंग्रेस्सी नेता ने किसी वामपंथी नेता को देशद्रोही कहा हो जबकि आज़ादी के बाद कांग्रेस को सबसे बड़ी चुनौती ये ही लोग थे.

आजकल तो ग़ज़ब है. बीजेपी वाले लोग तो, कम्युनिस्टों को तो छोड़िये कोंग्रेसियों को भी देशद्रोही बोल दे रहे है – राजनीतिक विरोध मने देशद्रोह. ये गलीज़ शब्द इतनी आसानी से इस्तेमाल किया जा रहा है कि ये अपना मानी ही खो गया है – हिंदी में बहन की गाली वाले शब्द की तरह जिसे कई बार भाई को भाई के खिलाफ और बाप को बेटे के खिलाफ इस्तेमाल करते देखा जा सकता है (छी).

जिन्होंने आज़ादी के आंदोलन में कोई योगदान नहीं किया, जो मुखबिरों की विरासत के लोग हैं वो आज बाकी सब को देशद्रोही करार दे रहे हैं और ग़ज़ब तो ये है कि बहुत से आमजन उनकी बात सुन रहे हैं और मान भी रहे हैं. ये माहौल बनाने में मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है.

(वरिष्ठ पत्रकार प्रभात डबराल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)