PMO का दखल और क्रांतिकारी पत्रकारिता, NDTV के पूर्व पत्रकार ने खोल दी कथित क्रांतिकारी पत्रकारों की पोल

वर्तमान दौर में आत्मवंचना में लिप्त जो भी पत्रकार खुद को “क्रांतिकारी” होने का दावा कर रहा है, उसकी समीक्षा इस बात पर होगी कि 2014 से पहले उसने कैसी पत्रकारिता की थी?

New Delhi, Sep 28 : PMO का दखल और क्रांतिकारी पत्रकारिता…. इन दिनों टीवी के दो बड़े पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी और रवीश कुमार अक्सर ये कहते हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) की तरफ से चैनल के मालिकों और संपादकों के पास फोन आता है और अघोषित सेंसरशिप लगी हुई है. सेंसरशिप बड़ी बात है. जिस हिसाब से सरकार के खिलाफ खबरें आ रही हैं उनसे इतना स्पष्ट है कि सेंसरशिप जैसी बात बेबुनियाद है.

हां यह जरूर है कि ऐसा स्वच्छंद माहौल नहीं है कि आप प्रधानमंत्री के खिलाफ जो चाहे वह छाप दें और सत्तापक्ष से कोई प्रतिक्रिया नहीं हो. लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या ऐसा स्वच्छंद माहौल पहले भी था? क्या पहले वाकई ऐसा था कि पीएमओ की तरफ से कभी किसी संपादक या फिर मीडिया संस्थान के मालिक को फोन नहीं किया जाता था और उन्हें जो चाहे वह छापने की आजादी थी? चैनल पर सरकार विरोधी “भाषण” देने की खुली छूट थी? सरकार विरोधी “एजेंडा” चलाने की पूरी आजादी थी?
यहां मैं आपको एक तेरह साल पुराना किस्सा सुनाता हूं. यह किस्सा उसी संस्थान से जुड़ा है जहां रवीश कुमार काम करते हैं. उन दिनों मैं भी एनडीटीवी इंडिया में ही हुआ करता था. और उन्हीं दिनों केंद्र में आजादी के बाद से अब तक के सबसे “उदार और कमजोर” प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का शासन था. दान में मिली कुर्सी पर बैठकर मनमोहन सिंह भी गठबंधन सरकार पूरी उदारता से चला रहे थे. तो सत्ता और पत्रकारिता के उस “सर्णिम काल” में, एनडीटीवी के क्रांतिकारी पत्रकारों को अचानक ख्याल आया कि क्यों नहीं मनमोहन सरकार के मंत्रियों की रिपोर्ट कार्ड तैयार की जाए और अच्छे और खराब मंत्री चिन्हित किए जाएं. एनडीटीवी ने इस क्रांतिकारी विचार पर अमल कर दिया. एनडीटीवी इंडिया पर रात 9 बजे के बुलेटिन में अच्छे और बुरे मंत्रियों की सूची प्रसारित कर दी गई.

उसके बाद का बुलेटिन मेरे जिम्मे था तो संपादक दिबांग का फोन आया कि बुरे मंत्रियों की सूची गिरा दो. मैंने कहा कि सर, अच्छे मंत्रियों की सूची भी गिरा देते हैं वरना यह तो चाटूकारिता लगेगी. उन्होंने कहा कि बात सही है… रुको, रॉय (डॉ प्रणय रॉय, चैनल के मालिक) से पूछ कर बताता हूं. मेरी भी एक बुरी आदत थी. जो बात मुझे सही नहीं लगती थी उसे मैं अपने तरीके से बॉस के सामने रख देता था. लेकिन जिरह नहीं करता था. मेरा मत है कि जिन व्यक्तियों पर चैनल चलाने की जिम्मेदारी है चैनल उन्हीं के “हिसाब” से चलना चाहिए. उस दिन भी मैंने वही किया अपनी बात उनके सामने रखी और फैसले का इंतजार किया. थोड़ी देर बाद दिबांग का फोन आया कि वो (डॉ रॉय) अच्छे मंत्रियों की लिस्ट चलाने को कह रहे हैं. मैंने बुरे मंत्रियों की सूची गिरा दी और अच्छे मंत्रियों की सूची चला दी.

करीब नौ साल बाद 2014 में जब मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब “द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर” बाजार में आयी तो पता चला कि आखिर डॉ प्रणय रॉय ने ऐसा क्यों किया था. पेज नंबर 97 पर संजय बारू ने बताया है कि अब तक के सबसे अधिक उदार और कमजोर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फोन करके एनडीटीवी के ताकतवर पत्रकार मालिक डॉ प्रणय रॉय को ऐसी झाड़ पिलाई कि उनकी सारी पत्रकारिता धरी की धरी रह गई. खुद प्रणय रॉय के मुताबिक मनमोहन सिंह ने उन्हें कुछ ऐसे झाड़ा था जैसे कोई टीचर किसी छात्र को झाड़ता है.
मनमोहन सिंह से मिली झाड़ के बाद महान पत्रकार/मालिक प्रणय रॉय इतना भी साहस नहीं जुटा सके कि अपनी रिपोर्ट कार्ड पूरी तरह गिरा सकें. अच्छे मंत्रियों की सूची सिर्फ इसलिए चलाई गई ताकि मनमोहन सिंह की नाराजगी दूर की जा सके. आप इसे पत्रकार से कारोबारी बने डॉ प्रणय रॉय की मजबूरी कह सकते हैं, सरकार की चाटूकारिता कह सकते हैं या जो मन में आए वह कह सकते हैं, लेकिन इसे किसी भी नजरिए से पत्रकारिता नहीं कह सकते.

खैर, इस वाकये से दो बातें साफ होती हैं. पहला कि जरूरत पड़ने पर पीएमओ ही नहीं प्रधानमंत्री का मीडिया सलाहकार और खुद प्रधानमंत्री भी मीडिया संस्थान के मालिकों और संपादकों को फोन करते रहे हैं. प्रदेशों के मुख्यमंत्री और उनके अधिकारी भी फोन करते रहे हैं. ज्यादातर राज्यों की सूचना और जनसंपर्क कार्यालय की विज्ञापन नीति इसी हिसाब से तैयार की जाती है. दूसरी बात कि सरकार चाहे कितनी भी उदार क्यों नहीं हो, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री चाहे कितना भी बड़ा डेमोक्रेट क्यों नहीं हो अगर उसकी छवि पर सुनियोजित तरीके से हमला होगा, उसके खिलाफ अपनी “नफरत” का इजहार किया जाएगा तो फिर उसकी तरफ से भी प्रतिक्रिया जरूर होगी. यह पहले भी होती थी और भविष्य में भी होगी.

ऐसे में अगर कोई पत्रकार यह कह रहा है कि पीएमओ की तरफ से अचानक फोन आने लगा है तो उसकी दो ही वजहें हो सकती हैं. पहली वजह यह कि वह पत्रकार किसी भी चैनल में कभी ऐसे जिम्मेदार संपादकीय पद पर नहीं रहा जिससे कि सरकारी नुमाइंदे उसे फोन करते. और दूसरी वजह यह कि वह पत्रकार खुद किसी बड़े सियासी खेल का हिस्सा है और उसी के तहत एक सामान्य बात को असामान्य तौर पर प्रचारित कर रहा है.
रवीश कुमार जिस चैनल में काम करते हैं उसके मालिक डॉ प्रणय रॉय हमेशा उसी बड़े सियासी खेल का हिस्सा रहे हैं. अगर आप डॉ प्रणय रॉय और एनडीटीवी के अतीत पर नजर डालेंगे तो पाएंगे कि डॉ रॉय को आगे बढ़ाने में कांग्रेस और तीसरे मोर्चे की सरकारों का बड़ा योगदान रहा है. शुरुआती दिनों में उन्हें दूरदर्शन से करोड़ों रुपये के ठेके दिए गए. डीडी की कीमत पर उनको खड़ा किया गया. उसके बाद जिस दौर में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी उस दौर में वह रुपर्ट मर्डोक वाले स्टार न्यूज के लिए चैनल चलाया करते थे. तब पैसा मर्डोक की कंपनी देती थी और डॉ रॉय अपना एजेंडा चलाते थे. फिर वो दिन भी आया जब मर्डोक को लगने लगा कि डॉ रॉय उसके पैसे से अपना हित साध रहे हैं तो फिर उसने 2003 में एनडीटीवी से करार खत्म कर दिया. 2004 में डॉ रॉय अपना चैनल लेकर आए तो केंद्र में एक बार फिर से कांग्रेस और सहयोगी दलों की सरकार थी. 2004 से 2014 के बीच एनडीटीवी ने सत्तापक्ष की पत्रकारिता की.

मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान सदी के महान पत्रकार रवीश कुमार भी सत्तापक्ष की पत्रकारिता ही करते थे. 2007 के रेल बजट वाले दिन खुद इन्होंने और एक और बड़े पत्रकार ने यानी दो बड़े पत्रकारों ने मिल कर लालू यादव के एक अधिकारी के साथ ब्रेकफास्ट पर ऐतिहासिक इंटरव्यू किया था जिसमें उन्होंने बताया था कि अधिकारी महोदय की महती भूमिका की वजह से रेल बजट तैयार हुआ है. (इस मसले से जुड़ा मेरा खुद का एक बेहद कड़वा अनुभव है. तब “फ्री स्पीच” की वकालत करने वाले रवीश कुमार पत्रकारिता पर एक टिप्पणी से इस कदर विचलित हुए कि रोते हुए मालकिन राधिका रॉय के पास शिकायत करने पहुंच गए थे. उस वाकये पर मैं फिर कभी विस्तार से लिखूंगा).

बहरहाल, ऊपर बताई गई रेल बजट वाली क्रांतिकारी पत्रकारिता से फुरसत मिलने पर रवीश स्पेशल रिपोर्ट में दलित की दुकान दिखाया करते थे या फिर मुंबई में स्ट्रगलर्स कॉलोनी या फिर मुजरेवालियों पर विशेष बनाया करते थे. ये एनडीटीवी की फेस सेविंग एक्सरसाइज थी और यहां ध्यान रखना होगा कि 2004 से 2014 के दौर में एनडीटीवी ने कभी भी सत्ता के खिलाफ कोई सशक्त स्टोरी नहीं की. सुनियोजित तरीके से सरकार के खिलाफ कोई “कैंपेन” नहीं चलाया. मौका पड़ने पर चमचागीरी ही की. अन्ना आंदोलन के दौरान जब केंद्र की मनमोहन सरकार पर भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लगे तब भी एनडीटीवी का रवैया संतुलित बना रहा.

2014 के बाद एनडीटीवी की पत्रकारिता अचानक “बागी” हो गई तो इसलिए क्योंकि जिस सियासी खेल में डॉ प्रणय रॉय शामिल थे उसमें मौजूदा सरकार के खिलाफ स्टैंड लेना उनकी मजबूरी थी. फिर भी डॉ प्रणय रॉय ने संतुलन बनाने की कोशिश की. उसी कोशिश के तहत कुछ बड़े लोग हटाए गए. लेकिन मौजूदा सत्तापक्ष ने एनडीटीवी को स्वीकार नहीं किया. अगर मौजूदा सत्तापक्ष ने एनडीटीवी को स्वीकार कर लिया होता तो इसकी भाषा भी काफी पहले बदल गई होती. जो मालिक एक झटके में 3-4 सौ कर्मचारियों को बाहर निकाल सकता है, अगर उसे लाभ का विकल्प दिया जाए तो वह किसी को भी बाहर कर सकता है. जो पत्रकार नौकरी से निकाले गए अपने सहयोगियों का फोन उठाना बंद कर दे, या फिर उन्हें बाहर निकालने की साजिश रचे, या फिर मातहत काम करने वालों को नौकरी से निकाल देने की धमकी दे, वह पत्रकार भी जरूरत पड़ने पर कोई भी समझौता कर सकता है.

इसलिए वर्तमान दौर में आत्मवंचना में लिप्त जो भी पत्रकार खुद को “क्रांतिकारी” होने का दावा कर रहा है, उसकी समीक्षा इस बात पर होगी कि 2014 से पहले उसने कैसी पत्रकारिता की थी? क्या उसने मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के खिलाफ सुनियोजित तरीके से कोई कैंपेन चलाया था या नहीं? या फिर इन क्रांतिकारी पत्रकारों की परीक्षा तब होगी जब केंद्र में एक बार फिर नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं रहेगी. अभी के दौर में देखा जाए तो ज्यादातर नामचीन पत्रकार एक बड़े “सियासी खेल” का हिस्सा नजर आते हैं. सत्तापक्ष और सत्ता विरोधी खेमे में खड़े इन चंद चर्चित पत्रकारों की “सियासत” के चलते पत्रकारिता और समाज का बड़ा नुकसान हुआ है. इस नुकसान का भुगतान देश को और समाज को लंबे समय तक करना होगा.

(वरिष्ठ पत्रकार समरेंद्र सिंह के फेसबु़क वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)