मोदी के वायदे और उन वायदों को पूरा किये जाने को सिद्ध करता उनका तोड़ा-मरोड़ा और भगोड़ा वाला तर्क, देश के भविष्य पर पहले से ही सवाल उठा रहा है।
New Delhi, Jul 22 : हम समर्थन और विरोध की कट्टरता के दौर में हैं। समर्थन के पीछे भी कट्टरता और विरोध की बुनियाद में भी अलग रंग लिये वही कट्टरता। कल संसद में जो कुछ हुआ,उसमें सत्ता और विपक्ष दोनों ही तरफ़ से गंभीर राजनीति के लक्षण नदारद होते दिखे।यह एक ख़तरनाक संकेत है। मोदी की जिस राजनीतिक शैली से झूठ और सच के बीच का अंतर,उनकी नाटकीयता से पट जाता है,उसी नाटकीयता को आज़माते हुए संसद में राहुल गांधी दिखे।दोनों ही नेताओं में विज़न का स्पष्ट अभाव दिखा, दोनों ही की शैली में एंटरटेन्मेंट इलीमेंट का वर्चस्व दिखा। संसदीय भाषण पर जिस तरह से आम लोगों और ‘प्रबुद्धों’ की प्रतिक्रिया दिखने को मिली,उससे साफ़-साफ़ सबके सब राजनीतिक समीक्षक से कहीं ज़्यादा सतही थियेटर या यूं कहें कि नुक्कड़-नौटंकी समीक्षक में बदलते दिखे। पहली बार लगा कि यह दौर सियासी खोखलेपन का ही नहीं,बल्कि बौद्धिक हल्कापन का भी है।
राहुल गांधी की राजनीतिक शैली में यह विचलन समय समय पर दिख जाता है कि कभी वो गंभीर राजनीति करते नज़र आते हैं, तो कभी उनकी यह गंभीरता सैकड़ों फीट नीचे गिरते हुए छिछलेपन की सियासत का दामन थाम लेती है। यह उनकी सियासी शैली का ‘रेंज’ है या पढ़ाये गये पाठ की रंगत,समझना मुश्किल नहीं है।
मोदी के वायदे और उन वायदों को पूरा किये जाने को सिद्ध करता उनका तोड़ा-मरोड़ा और भगोड़ा वाला तर्क, देश के भविष्य पर पहले से ही सवाल उठा रहा है। इस सवाल का जवाब,आत्मविश्वास से लवरेज किसी मज़बूत नेतृत्व की तरफ़ से ही आ सकता है,मगर,राहुल का आत्मविश्वास अब भी उनके दीर्घकालीन सियासती अनुभव से कहीं ज़्यादा कुर्ते के बटन और बाजू संभालने पर निर्भर होता दिख रहा। राहुल के भाषण में अम्बानी,अडाणी और इन्हीं जैसे 10-15 पूंजीपतियों के लिए काम करने वाली सरकार से लेकर ‘चौकीदार नहीं भागीदार’ जैसे जुमले भले ही मोदीनुमा तुकबंदी की याद दिलाते हों,मगर पारसी थियेटर वाली मोदी की संवाद अदायगी के सामने उनकी भाषण शैली बिखरी हुई,हांफती हुई और फ़ीकी-फ़ीकी सी दिखी।
दोनों ही तरफ़ से संसद में मुद्दों की सियासत होती नहीं दिखी, बल्कि जनता से सरोकार रखने वाले मुद्दे मिटते-मिटाते-सुकचाते-सिमटते, संवाद और अभिनय में बदलते दिखे। यह बदलाव डराता है। मगर फिलहाल इन दोनों ही तरफ़ के ‘बड़बोले’ और ‘बतोले’ नेतृत्व को डरने की ज़रूरत नहीं नज़र आती, क्योंकि उन्हें इस बात से राहत मिल सकती है कि दोनों के साथ पढ़े-अनपढ़े-ख़ूब पढ़े ‘अंखमुदवा’ सपोर्टर खम ठोककर खड़े हैं। एक पक्ष को ‘झूठे ख़्वाब भा रहा है, दूसरे को ‘वंशगत रुआब’।