प्रशांत महासागर क्षेत्र में चीन के वर्चस्व पर भारत-जापान की दोस्ती ही लगाम लगा सकती है

नरेंद्र मोदी की इस जापान-यात्रा के दौरान 25 समझौते हुए हैं, जिनमें एक यह भी है कि दोनों देशों की मुद्राओं का 75 अरब डाॅलर तक का लेन-देन सीधा होगा।

New Delhi, Nov 01 : पिछले चार साल की भारतीय विदेश नीति पर नजर डालें तो हमारी सरकार पड़ौस और दूर के लगभग सभी देशों में गच्चा खाती दिखाई पड़ती है लेकिन जापान एक ऐसा देश है, जिसके साथ हमारे संबंधों में निरंतर घनिष्टता बढ़ती जा रही है। घनिष्टता की रफ्तार इतनी तेज है कि हम और जापानी यह भूल ही गए कि दोनों देशों के बीच 1974 में कितनी ठन गई थी।

इंदिराजी के पोखरन परमाणु अंतःस्फोट के बाद और अटलजी के परमाणु विस्फोट के बाद दोनों देशों के बीच जबर्दस्त खटास पैदा हो गई थी लेकिन अब जापान भारत में 33.8 अरब डाॅलर का विनियोग कर रहा है। यह मोरीशस और सिंगापुर के बाद सबसे ज्यादा है। दोनों देशों के प्रधानमंत्री पिछले चार-सवा चार साल में 12 बार मिल चुके हैं।

नरेंद्र मोदी की इस जापान-यात्रा के दौरान 25 समझौते हुए हैं, जिनमें एक यह भी है कि दोनों देशों की मुद्राओं का 75 अरब डाॅलर तक का लेन-देन सीधा होगा। उसमें डाॅलर के माध्यम की जरुरत नहीं होगी। डाॅ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में तय हुई 3 अरब डाॅलर की यह राशि 75 अरब तक पहुंच गई, यह अपने आप में एक कहानी है। अब दोनों देश मिलकर एशिया और अफ्रीका के देशों में अनेक संयुक्त उपक्रम शुरु करेंगे। यह एक तरह से चीन की रेशम महापथ (ओबोर) योजना का रचनात्मक जवाब होगा। दोनों देशों के बीच फौजी सहयोग बढ़ाने पर भी समझौता हुआ है। अब दोनों देशों के विदेश मंत्रियों और रक्षा-मंत्रियों की नियमित बैठकें भी हुआ करेंगी।

‘दिल्ली-मुंबई औद्योगिक बरामदा’ के तहत 90 अरब डाॅलर की रेल और सड़क बनाने में जापान का सक्रिय सहयोग रहेगा। लगभग 1500 किमी का यह बरामदा भारत की औद्योगिक प्रगति में अपूर्व योगदान करेगा। मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन तो बन ही रही है। भारत और जापान, दोनों ही अपनी परंपरा पर गर्व करते हैं। इस दृष्टि से जो समझौता योग, आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा आदि क्षेत्रों में सहयोग के लिए हुआ है, वह अन्य देशों के लिए भी अनुकरणीय है। इस भारत-जापान घनिष्टता को अमेरिका और आस्ट्रेलिया का उत्साहपूर्ण समर्थन है, क्योंकि प्रशांत महासागर क्षेत्र में चीन के वर्चस्व पर यह मित्रता ही कुछ लगाम लगा सकती है। कोई आश्चर्य नहीं कि अगले दशक में भारत और जापान को सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य का दर्जा भी अपने आप मिल जाए।

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)