New Delhi, Sep 22 : राष्ट्रीय स्वयंसवेक के सरसंघचालक मोहन भागवत के भाषण में मैं तीसरे दिन नहीं जा सका, क्योंकि उसी समय मुझे एक पुस्तक विमोचन करना था लेकिन आज बड़ी सुबह कई बुजुर्ग स्वयंसेवकों के गुस्सेभरे फोन मुझे आ गए और उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मोहन भागवत ने संघ को शीर्षासन नहीं करा दिया ? क्या उन्होंने वीर सावरकर और गुरु गोलवलकर की हिंदुत्व की धारणा को सिर के बल खड़ा नहीं कर दिया ?
सावरकरजी ने अपनी पुस्तक हिंदुत्व में लिखा था कि हिंदू वही है, जिसकी पितृभूमि और पुण्यभूमि भारत है। इस हिसाब से मुसलमान, ईसाई और यहूदी हिंदू कहलाने के हकदार नहीं हैं,
जनसंघ के अध्यक्ष प्रो. बलराज मधोक ने 1965-67 में मुसलमानों के ‘भारतीयकरण’ का नारा दिया था। सर संघचालक कुप्प सी. सुदर्शनजी ने संघ-कार्य को नया आयाम दिया। वे मेरे अभिन्न मित्र थे। उन्होंने ही मेरे आग्रह पर ‘राष्ट्रीय मुस्लिम मंच’ की स्थापना की थी, जिसे आजकल इंद्रेशकुमार बखूबी संभाल रहे हैं। सुदर्शनजी ने इसके स्थापना अधिवेशन का उदघाटन का अनुरोध भी मुझसे किया था। अब मोहन भागवत इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। इसीलिए उन्होंने गोलवलकरजी के विचारों के बारे में ठीक ही कहा है कि देश और काल के हिसाब से विचार बदलते रहते हैं। ज़रा हम ध्यान दें कि सावरकरजी और गोलवलकरजी के विचारों में इतनी उग्रता क्यों थी ?वह समय मुस्लिम लीग के हिंदू-विरोधी रवैए और भारत-विभाजन के समय देश में फैले मुस्लिम-विरोधी रवैए का था।
अब 70 साल में हवा काफी बदल गई है। इन बदले हुए हालात में यदि मोहन भागवत ने हिम्मत करके नई लकीर खींची है तो देश में फैले हुए लाखों स्वयंसेवकों को उस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और उसके अनुसार आचरण भी करना चाहिए।
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