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कोर्ट अगर संविधान की “मनमानी व्याख्या” करे, तो संसद निभाए उस व्याख्या की समीक्षा का दायित्व !

जब स्वयं सुप्रीम कोर्ट अपने एक फैसले में किसी कानून को संवैधानिक और दूसरे फैसले में असंवैधानिक कहता है, तो स्पष्ट है कि उसकी कोई एक व्याख्या गलत है।

New Delhi, Oct 01 : आईपीसी की धारा 497 को निरस्त कर व्यभिचार को अपराध के दायरे से बाहर करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मैंने खुलकर अपनी असहमति जताई थी। इसी संदर्भ में यह सवाल भी उठाया कि अगर सुप्रीम कोर्ट को कानून बनाने का अधिकार नहीं है, तो उसे कानून रद्द करने का अधिकार भी नहीं होना चाहिए, बल्कि कानून बनवाने और रद्द करवाने के लिए उसे संसद के सामने अपनी समीक्षा रखनी चाहिए।

यह सवाल मैंने इसलिए उठाया, क्योंकि मेरी निजी राय (जिससे आप सहमत या असहमत हो सकते हैं) यह बनी कि किसी कानून के व्यावहारिक पहलुओं और दूरगामी प्रभावों की उचित समझ के बिना केवल संविधान के सैद्धांतिक पहलुओं की “मनमानी व्याख्या” के आधार पर अगर कानून बनने और निरस्त होने लगें, तो समाज में असंतोष बढ़ जाएगा और लोकतंत्र और भारत की आत्मा मर जाएगी।
यहां “मनमानी व्याख्या” शब्दयुग्म का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि जिस धारा 497 को अभी असंवैधानिक करार दिया गया है, उसे पहले अनेक मौकों पर संवैधानिक करार दिया जा चुका है। यहां तक कि इस बार इसे असंवैधानिक करार देने वाले पांच जजों में से एक जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के पिता जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ भी 1985 में इसे संवैधानिक करार दे चुके थे।

जब स्वयं सुप्रीम कोर्ट अपने एक फैसले में किसी कानून को संवैधानिक और दूसरे फैसले में असंवैधानिक कहता है, तो स्पष्ट है कि उसकी कोई एक व्याख्या गलत है, क्योंकि संविधान तो वही है, यह उसकी व्य़ाख्या है जो सीधे 180 डिग्री की पलटी मार रही है, यानी “मनमानी” है। यानी कि जज भी गलत हो सकते हैं, जजों की बेंच भी गलत हो सकती है और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले भी गलत हो सकते हैं।
इसीलिए, मेरे मन में यह तकनीकी पहलू उठा कि सुप्रीम कोर्ट संविधान की व्याख्या करे, कानूनों की समीक्षा करे, संविधान के आईने में कानूनों की अनुपालना सुनिश्चित करे, लेकिन जब उसे लगे कि कोई नया कानून बनना चाहिए या किसी मौजूदा कानून को निरस्त होना चाहिए, तो अपने ऑब्ज़र्वेशन के साथ उस मामले को उसे संसद को रेफर करना चाहिए।

अपनी अल्प जानकारी के बावजूद मैं यह जानता हूं कि संविधान अपरिवर्तनीय नहीं है। इसे बनाने की प्रक्रिया से 299 लोग जुड़े रहे, जिनमें से 284 सदस्यों ने इस पर हस्ताक्षर किए, बावजूद इसके पिछले 68-69 साल में इसमें 100 से अधिक संशोधन हो चुके हैं। इसलिए अगर हम संविधान को कुरान और जजों को पैगंबर नहीं बना देंगे, तो लोकतंत्र का अधिक भला होगा। जब 299 लोग अल्टीमेट नहीं थे, तो 5 लोग अल्टीमेट हों, ये ज़रूरी नहीं।
मेरी राय में, देश में अनुशासन बनाए रखने के लिए न्यायपालिका द्वारा दिया गया अंतिम फ़ैसला तो मान्य होना चाहिए, तब तक जब तक कि वह स्वयं या कानून बनाकर संसद उसे पलट न दे, लेकिन न्यायपालिका और जजों के कार्य और व्यवहार समीक्षा से परे नहीं होने चाहिए। अगर हमें लोकतंत्र के बेहतर परिणाम प्राप्त करने हैं, तो लोकतंत्र का कोई भी अंग निरंकुश नहीं होना चाहिए, लोकतंत्र के किसी भी अंग के पास असीमित अधिकार नहीं होने चाहिए और लोकतंत्र के सभी अंगों के लिए एक लक्ष्मण-रेखा होनी चाहिए।

खुद सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व है। इसीलिए, मैंने कहा है कि 125 करोड़ लोगों के जीवन की जीवनशैली, मर्यादाओं, परंपराओं, मान्यताओं, धार्मिक रीति-रिवाज़ों और विश्वासों को तय करने में 5 लोग हमेशा सही और सटीक साबित हों, यह ज़रूरी नहीं।
मैं अभी तक इस राय पर कायम हूं कि व्यभिचार को अपराध के दायरे से बाहर निकालने का सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला डिफ़ैक्टिव है, इसलिए मैं इस फ़ैसले का और संविधान का और अध्ययन कर रहा हूं और अगर मुझे आवश्यक लगा तो इस मुद्दे पर अभी और लिखूंगा। यह न तो संविधान को नकारना है, न सुप्रीम कोर्ट को नकारना है, न जजों को नकारना है, केवल स्थिति की एक व्यावहारिक समीक्षा भर है, जिससे आप सहमत या असहमत हो सकते हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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