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महागठबंधन नहीं कांग्रेस को कायाकल्प की ज़रूरत

कांग्रेस की मुश्किल ये कि एनडीए जैसे बड़े गठबंधन का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस को भी गठबंधन की ज़रूरत है।

New Delhi, Oct 09 : 2014 वाले एनडीए और 2018 में एनडीए में फर्क आ गया है.. 2014 में सहयोगी दलों के साथ मिलकर एनडीए ने कुल 336 सीटों के साथ सरकार बनाई. यानी कि 543 सीटों वाली लोकसभा में एनडीए के पास कुल संख्या 336 थी. लेकिन लोकसभा में मजबूत एनडीए अब कमजोर हो रही है..टीडीपी ने लोकसभा में एनडीए का साथ छोड़ा तो टीडीपी के 16 सांसदों की ताकत भी एनडीए ने खो दिया..

2014 से 2018 के बीच अकेले बीजेपी कई उपचुनाव हार गई.. और अकेले बीजेपी 282 सांसदों वाली पार्टी से 272 सांसदों वाली पार्टी हो गई..राजस्थान, अजमेर अरवल और गुरदासपुर के उपचुनावों में बीजेपी की हार के बाद जब यूपी के गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में उपचुनाव हुए तो हार के हारकारे से बीजेपी में हाहाकार मच गया..2014 के लोकसभा चुनाव के बाद 20 लोकसभा क्षेत्रों में उपचुनाव हो चुके हैं जिनमें बीजेपी को मात्र तीन सीटों पर जीत मिली है.. 20 में 17 पर हार बीजेपी के लिए विपक्ष की बड़ी ललकार है…उपचुनावों के इन नतीजों ने बीजेपी के खिलाफ खड़े सियासी दलों को कई मंत्र दिए…यूपी में गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में बीजेपी की हार के बाद जो समीकरण सामने आए वो सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच गठबंधन की पुख्ता ज़रूरत बताने लगे.. और यहीं से बात आगे बढ़ी भी.. लेकिन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों से पहले ही ये समीकरण कण-कण मे बिखर गया.. पहले मायावती ने अलग राह ली.. बाद में अखिलेश यादव ने कांग्रेस के पंजे को अंगूठा दिखा दिया।

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सपा-बसपा एक-दूसरे का साथ देंगे.. और राजनीति के जानकार ये जानते हैं कि इस साथ से हाथ कमजोर होगा…कमल का रास्ता साफ होगा…मतलब ये कि चुनावी मैदान में उतरकर ये दोनों दल बेहद आसानी से दोनों राज्यों में बीजेपी को फायदा पहुंचा देंगे और कांग्रेस को नुकसान…तो फिर उन दलों से कांग्रेस क्या लोकसभा चुनाव में गठबंधन करना चाहेगी जो दल लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस की ज़मीन कमजोर करने के लिए अखाड़े में ताल ठोक रहे हों.. और जो दल कांग्रेस का पंजा झटक कर चुनावी मैदान में दूसरे समीकरण गढ़ गए हों..दरअसल मुश्किल ये है कि इन सवालों के जवाब कांग्रेसी खेमे से आ नहीं रहे हैं..

क्योंकि कांग्रेस की मुश्किल ये कि एनडीए जैसे बड़े गठबंधन का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस को भी गठबंधन की ज़रूरत है..और मुश्किल ये भी यूपी में सांप्रदायिक और जातीय राजनीति के जरिए हुए वोट के बंटवारे में उसकी हिस्सेदारी बेहद कम है…आलम ये है कि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर का ही अपना कोई जनाधार नहीं है और ना ही मास में कोई ऐसी अपील जो सूबे में वोट को प्रभावित कर सके.. तो फिर पार्टी करे क्या.. जाहिर है खुद कांग्रेस अभी इन्ही सवालों के जवाब खोज रही है.. और कांग्रेस की खामोशी में उसके यही हालात छुपे हुए हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार असित नाथ तिवारी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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