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एंकरिंग : समझदार मेहमान को जितनी ज़्यादा बदतमीज़ी से डाँटोगे उतने ज़्यादा ज्ञानी दिखोगे

हम एंकरिंग को गंभीर काम समझते थे. हमें कहाँ पता था कि चेहरे पर गुस्से के भाव से ही गम्भ्भीरता झलक जाती है।

New Delhi, Jul 09 : न्यूज़ चैनल्स की एंकरिंग इतनी आसान हो जायेगी, कसम से हमने सोचा भी नहीं था. अपन ने भी कुछ साल टीवी न्यूज़ में गुजारे हैं. खूब सारी रिपोर्टिंग और थोड़ा बहुत एंकरिंग भी की है. लेकिन आठ साल दूरदर्शन न्यूज़ में बिताने के बाद १९९६-९७ में जब प्राइवेट चैनल्स में आया और चैनल प्रमुख बना तो एंकरिंग के बारे में सोचा भी नहीं. आराम से कर सकता था, मुझे कौन रोकता. लेकिन लगा कि ये सीरियस काम है, चैनल प्रमुख के रूप में आपको पचास और प्रशासकीय काम करने होते हैं आगे पीछे इतना सब देखना होता है ऐसे में किसी शो की तैयारी कैसे होगी – एंकरिंग से न्याय नहीं कर पाऊंगा. ऐसा सोचा, सो ये मोह छोड़ दिया.

अब सोचता हूँ कि कहीं कुछ गलत तो नहीं कर दिया. एंकरिंग के लिए तैयारी की क्या ज़रुरत है. आवाज़ भारी और तेज़ होनी चाहिए, वो अपने पास थी. थोड़ी थोड़ी देर बाद त्योरियां चढ़ा कर चेहरे पर गुस्से के भाव दिखने चाहिए, वो भी माशाल्लाह हम कर ही लेते थे. चीख- चिल्लाहट में अपन किसी से कम कभी नहीं रहे – यकीन न हो तो हमारे तब के सहकर्मियों से पूछ लीजिये. हाँ, आजकल बीच बीच में मोदी जी मोदी जी भी बोलना होता है, वो कौन सी बड़ी बात है कर लेते – फ़क़ीर, फ़क़ीरी सब बोल लेते. बाकी , पीसीआर (प्रोडक्शन कण्ट्रोल रूम) में रामजस या हिन्दू कॉलेज का कोई सिविल सर्विस रिजेक्ट प्रोडूसर तो बैठा ही होता. वो अपन को शालीन होने की गलती थोड़े ही करने देता- एयर पीस पर सावधान करता रहता कि ढीले मत पड़ो, मन में जो कुंठा है अभी के अभी यहीं पर निकाल दो. गज़ब का सिस्टम डेवेलप हो गया है. कहीं कोई परेशानी है ही नहीं.

हम एंकरिंग को गंभीर काम समझते थे. हमें कहाँ पता था कि चेहरे पर गुस्से के भाव से ही गम्भ्भीरता झलक जाती है. रहा सवाल विषय के ज्ञान का तो आप को बस इतना करना है कि रह रह कर अपने मेहमानो को झिडकते रहो, मौका लगे तो डांट दो. जितने ज़्यादा समझदार मेहमान को जितनी ज़्यादा बदतमीज़ी से डाँटोगे उतने ज़्यादा ज्ञानी दिखोगे. उन्हें देशद्रोही बोल दोगे तो सोने में सुहागा.

काश तब हमें ये सब पता होता. हमने खुद तो एंकरिंग नहीं ही की, अपने ऐंकरों को भी बहुत बाँध कर रखा, गाली गलौज तक नहीं करने दी. उनकी प्रतिभा को उभरने नहीं दिया. आज देखिये मौका मिलते ही उनमे से कुछ कैसे फल फूल रहे हैं. अपना उद्धार तो अब नामुमकिन है. लेकिन जिनके दो-चार साल हमने शालीनता के चक्कर में बरबाद कर दिए उनसे माफ़ी मांगनी तो बनती है.

(वरिष्ठ पत्रकार प्रभात डबराल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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