New Delhi, Jul 27 : कल से जो बवाल मचना शुरू हुआ था, उसके दबाव में आज बिहार सरकार ने मुजफ्फरपुर बालिका गृह के मामले को सीबीआई को सौंप दिया है. मगर क्या सीबीआई को सौंपना ही निष्पक्ष और त्वरित जांच की गारंटी है? क्या मुजफ्फरपुर के दोषियों को सजा दिला देने से ही बिहार में बालिका गृहों के सारे मसले सुलझ जायेंगे? क्या सिर्फ मुजफ्फरपुर में ही बालिका गृह में इस तरह की स्थितियां थीं?
दो-तीन दिन से पटना के महिला सुधार गृह में भी बवाल चल रहा है. ऊपर-ऊपर से खबर यह मिल रही है कि वहां की महिलाएं वर्तमान अधीक्षक के तबादले से नाराज हैं. मगर अंदरूनी सूचना है कि वहां महिलाओं को दंडित करने के नाम पर उनके प्राइवेट पार्ट्स पर प्रहार करने की प्रथा रही है, जिसके कारण महिलाएं गुस्से में है. गोपालगंज बालिका गृह से दो बच्चियां नौ महीने से फरार हैं, इनका कोई पता नहीं चल पा रहा है. जिस टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साइंसेज की सोशल ऑडिट से मुजफ्फरपुर के कांड का खुलासा हुआ, उसकी रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में सिर्फ छह बालिका गृह ऐसे संचालित हो रहे हैं, जिनका काम संतोषजनक और मानक के अनुरूप है. यानी गड़बड़ियां सिर्फ एनजीओ के स्तर पर नहीं है.
इस मामले में सबसे बड़ी गड़बड़ी जो सामने आ रही है, वह यह है कि ज्यादातर जिलों में चाइल्ड वेलफेयर कमिटी का हाल बुरा है. हर तीन साल में नयी कमिटी का गठन होना चाहिए था, मगर ज्यादातर जिलों में कमिटी छह-छह सालों से काम कर रही है. कई जिले में तो कमिटी का अस्तित्व ही नहीं है. इन कमिटियों में एक महिला सदस्य का होना अनिवार्य है, मगर यह कई जगहों में नहीं है. मुजफ्फरपुर में भी यही स्थिति थी. जो काम टिस की रिपोर्ट ने किया, वह तो इस कमिटी को करना चाहिए था. क्योंकि इस कमिटी के सदस्य को बालिका गृहों में ही बैठना है. यह कमिटी अगर बच्चियों से नियमित संपर्क में रहे तो ऐसी घटना का पता तत्काल चल जाये.
दूसरा मसला बाल-बालिका गृह के कर्मियों के मानदेय का है. इनका मानदेय इतना कम है कि एक तरह से इन्हें रखा ही इस लिए रहा है कि आप गलत तरीके से पैसे कमायें. किसी का मानदेय एक हजार है तो किसी का दो या तीन हजार. खबर है कि पिछले तीन सालों से यह मानदेय भी नहीं बंटा है. सरकार की तरफ से फंड ही नहीं जारी किया गया. हालांकि इसकी पुष्टि सरकारी स्तर पर नहीं की गयी है, मगर अंदर के लोग यही बता रहे हैं. ऐसे में तो इन गृहों में जो कुछ हो रहा है, वह कम ही है.
सवाल यह भी है कि इस तरह के काम-काज में जिन अफसरों-नेताओं को लगाया जाता है, उनकी संवेदनशीलता का स्तर क्या होता है? क्या सरकार ने इस मसले पर कभी विचार किया है. खबर है कि एनजीओ वालों की तो खूब ट्रेनिंग होती है, मगर महिला-बाल विकास विभाग के अफसरों की संवेदनशीलता बढ़ाने के लिए कोई काम नहीं होता. ऐसे में इनके लिए हर परियोजना पैसा कमाने और यौनेच्छा संतुष्ट करने का साधन बनकर रह जाता है. आज के जमाने में दुर्भाग्य से एक औसत इंसान की यही तो अभिलाषाएं रह गयी हैं.
इसलिए आज भले ही मामले को सीबीआई को सौंप दिया गया हो, मगर इससे चीजें सुधर जायेंगी, ऐसा लगता नहीं है. कहा जा रहा है कि 2013 में मुजफ्फरपुर के इसी बालिका गृह में एक बच्ची गर्भवती हो गयी थी. तब एफआईआर भी हुआ था, मगर इसके बावजूद एनजीओ बदला नहीं गया. क्योंकि मामला इतना हाई प्रोफाइल नहीं हुआ. आज कार्रवाई मंत्री के पति के स्तर तक पहुंच गयी है. इसके बावजूद ऐसा नहीं लग रहा कि सभी दोषी पकड़ में आ गये हैं. ऐसा लग रहा है कि मामले को ठंडा करने की कवायद भर हो रही है. मगर क्या इससे स्थितियां सुधरेंगी? ऐसा लगता नहीं है.
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