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क्यों हम चाहते हैं कि उन्हें खुद से नीचे रखने की थोड़ी सी गुंजाइश अभी भी बनी रहे?

हमारी दलील है कि एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग होगा और सवर्णों को जानबूझकर इसमें फंसाया जाएगा।

New Delhi, Sep 06 : आज भारत बंद है। एससी/एसटी एक्ट में बदलाव के विरोध में सवर्णों ने ये बंद रखा है। सही भी है, लोकतंत्र में हर किसी को अधिकार है विरोध प्रदर्शन का। मैं भी सवर्ण हूं और मेरी शिराओं में दौड़ने वाले खून का भी सामान्य तापमान 98.6°f ही है। शायद कुछ लोगों का खून खौल रहा है, लेकिन ये बस एक जुमला है। किसी का खून नहीं खौलता, 98.6 से 99 हो जाए तो बुखार हो जाता है और आदमी कांपने लगता है।

खैर, बात हो रही है भारत बंद की। सवर्ण होने के नाते सैद्धांतिक तौर पर तो मुझे भी इसका समर्थन करना चाहिए, लेकिन मैं कर नहीं पा रहा। मेरे मन में कुछ सवाल हैं और मैं चाहता हूं कि इन सवालों पर कुछ विचार हो, बहस हो ताकि इतना तो समझा जा सके कि हम विरोध किस चीज का कर रहे हैं। ये इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हम सवर्ण हैं और हम आज भी मानते हैं कि हमारा बौद्धिक विकास औरों से ज्यादा हुआ है, हमारा दिमाग औरों से थोड़ा बड़े आकार का है और हम परंपरागत रूप से औरों से श्रेष्ठ हैं। तो समस्या है या यूं कहें कि डर है हमारे आत्मसम्मान के आहत होने का। सही भी है, हर किसी को आत्मसम्मान प्यारा होता है। लेकिन क्या आत्मसम्मान सिर्फ हमारा ही है? क्या दलितों को अपने आत्मसम्मान की रक्षा का हक नहीं मिलना चाहिए?

हमारी दलील है कि एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग होगा और सवर्णों को जानबूझकर इसमें फंसाया जाएगा। बिल्कुल संभव है, क्योंकि दहेज उत्पीड़न, बलात्कार, बाल यौन शोषण और हत्या जैसे जघन्य अपराधों के लिए बने कठोर कानूनों का भी दुरुपयोग होता है। तो क्या इन कानूनों में भी ढील दे दी जाए? दरअसल समस्या दुरुपयोग के डर की है ही नहीं। समस्या है हमारे अंदर कहीं गहरे बैठे सामंती मानसिकता की। हम आज भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि दलित कभी हमारे बराबर हो सकता है, हमारे सामने सोफे पर बैठ सकता है, ब्रांडेड महंगे कपड़े पहन सकता है, अच्छा खा सकता है, ठहाके लगा कर हंस सकता है। दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी से बताएं, क्या आपके सामने कोई दलित यह सब करता है तो आपकी …टें आज भी नहीं सुलग उठती हैं, आपका दिल नहीं करता कि इसका मुंह तोड़ दूं और एक गंदी सी गाली आपके मुंह से अनायास नहीं निकल जाती।

आप मानें या न मानें लेकिन ये मानसिकता सवर्णों की आज भी है। तो डर इसी बात का है कि ये मानसिकता कहीं हमें फंसा न दे। एससी/एसटी एक्ट 32 साल से लागू है। हमारे, आपके कितने परिचितों और रिश्तेदारों को आजतक फर्जी केस में फंसाया गया है? आपकी आपत्ति है कि अब बिना जांच के गिरफ्तारी होगी, तो क्या जांच के बाद गिरफ्तारी के लिए आप तैयार हैं? कोई भी कानून सभ्य समाज में शांति व्यवस्था कायम रखने के लिए बनाया जाता है, समाज को तोड़ने के लिए नहीं। आप यदि सही हैं, आपके दिल में खोट नहीं है तो डर किस बात का है। यह कानून दलितों को भरोसा देता है कि कोई उनका अपमान नहीं कर सकता, उन्हें प्रताड़ित नहीं कर सकता, वे भी पूरे आत्मसम्मान के साथ तनकर खड़े हो सकते हैं, उनकी बहू बेटियां भी इज्जत की जिंदगी जी सकती है तो क्या हमें भी ऐसा नहीं सोचना चाहिए?

क्यों हम चाहते हैं कि उन्हें खुद से नीचे रखने की थोड़ी सी गुंजाइश अभी भी बनी रहे? आप एकबार दिल खोलकर उन्हें गले लगा लें, आपके सामने जमीन पर उकड़ूं बैठे एक दलित को हाथ पकड़ कर अपने साथ सोफे पर बिठा लें, देखिएगा आपका सारा डर क्षणभर में काफूर हो जाएगा। वो सम्मान से जीना चाहते हैं, वो आपके बराबर खड़ा होना चाहते हैं, वो मुक्त अट्टहास करना चाहते हैं तो करने दीजिए न। आप भी उनकी खुशी में खुलकर शामिल होईए, एकबार उनको सम्भाल कर तो देखिए, उनका दिल भी आपसे कम बड़ा नहीं है। उनके खून का तापमान भी 98.6°f ही है। किसी की प्रशंसा चाहे जितनी कर लें लेकिन किसी का अपमान बहुत सोच समझकर करना चाहिए, क्योंकि अपमान वो ऋण है जो हर कोई अवसर मिलने पर ब्याज सहित जरूर चुकाता है।

(वरिष्ठ पत्रकार शरत चंद्र सांस्कृत्यान के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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