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क्या अखिलेश और मायावती गठबंधन की काट बनेगा शिवपाल मिसाइल ?

अखिलेश यादव और मायावती की एकता से संभावित नुकसान को कम करने के लिए बीजेपी की सरकार और पार्टी नेतृत्व की कोशिशें जारी हैं।

New Delhi, Sep 06 : उत्तर प्रदेश की राजनीति बहुत ही दिलचस्प मुकाम पर पंहुच चुकी है .२०१४ में दिल्ली में बीजेपी के प्रधानमंत्री की शपथ के पीछे वैसे तो देश की बड़ी आबादी ( 31 %) का समर्थन था लेकिन उत्तर प्रदेश से चुनकर गए 73 सांसदों का समर्थन बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था. 2014 के चुनाव में बीजेपी के अलावा बाकी पार्टियां शून्य और पांच के बीच सिमट गयी थीं . लेकिन बाद में राज्य में जब लोकसभा के लिए उपचुनाव हुए तो राज्य की तीन महत्वपूर्ण सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवार चुनाव हार गए . बीजेपी के समर्थन में कोई कमी नहीं आयी थी लेकिन उनके उम्मीदवारों के विरोध में खंडित विपक्ष नहीं था. मायावती और अखिलेश यादव की सारी ताक़त एकजुट हो गयी थी नतीजतन बीजेपी की तीन सीटें कम हो गयीं . यह तीन सीटें कोई मामूली सीटें नहीं थीं . राज्य के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की सीटें थीं , कैराना की सीट थी जहां हुए २०१३ के दंगों के बाद ऐसी स्थिति बन गयी थी जिससे पूरे देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति उफान पर थी और बीजेपी के पक्ष में माहौल बन गया था. उसके बाद २०१७ में हुए विधान सभा के चुनाव में भी बीजेपी को तीन चौथाई बहुमत मिला था लेकिन फूलपुर, कैराना और गोरखपुर के चुनावों ने उस सारे तूफ़ान के आगे ब्रेक लगा दिया था.

२०१७ के विधानसभा चुनावों में एक और फैक्टर काम कर रहा था. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष के परिवार में भारी फूट पड़ गयी थी ,शिवपाल यादव बहुत नाराज़ थे और उनके साथी संगी , पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव के खिलाफ पूरी मेहनत से काम कर रहे थे . शायद यही वजह थी इटावा के आस पास के जिलों में शिवपाल यादव के प्रभाव के इलाकों में बीजेपी को बड़ी सफलता हाथ लगी . हालांकि यह भी सच है कि इटावा जैसी सीट पर शिवपाल समर्थित उम्मीदवार को एक हज़ार से थोडा ज्यादा वोट ही हाथ आया था लेकिन माहौल समाजवादी पार्टी के खिलाफ बन गया था. उसके बाद अखिलेश यादव की समझ में आ गया कि बीजेपी उत्तर प्रदेश में भी बड़ी पार्टी है और उनकी पार्टी मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव , राम गोपाल यादव आदि के वफादार कार्यकर्ताओं का समागम है . केवल निजी वफादारी की पूंजी के साथ राजनीतिक लडाइयां नहीं लड़ी जातीं. उसी समझदारी का नतीजा है अखिलेश यादव ने ऐसा क़दम उठाया जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी . उन्होंने फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों में मायावती से मदद की अपील की और मायावती ने अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा किया .इतना ही नहीं अखिलेश यादव के उम्मीदवार को समर्थन दे दिया .बाकी तो इतिहास है. बीजेपी चुनाव हार गयी . लोकसभा में तीन सीटें कम हो जाने से सत्ताधारी पार्टी की सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था लेकिन एक सन्देश बहुत ही मजबूती से समकालीन राजनीति के पन्नों पर दर्ज हो गया कि अगर उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव एकजुट हो जाते हैं तो बीजेपी के लिए बहुत ही मुश्किल होगी .

अखिलेश यादव और मायावती की एकता से संभावित नुकसान को कम करने के लिए बीजेपी की सरकार और पार्टी नेतृत्व की कोशिशें जारी हैं . अमित शाह को एक ऐसे राजनेता के रूप में जाना जाता है जो चुनाव जीतने के विशेषज्ञ हैं. . समय ने देखा है कि उन्होंने गुजरात विधान सभा के चुनाव को किस तरह से हार के मुंह से घसीट कर अपनी पार्टी को जीत दिलवा दी थी . कर्णाटक चुनाव कवर करने वाले रिपोर्टरों को पता है कि किस तरह गाँव गाँव ,शहर शहर घूमकर उन्होंने अपनी पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी बना दिया था. लोकसभा २०१९ में भी वे उत्तर प्रदेश में अपनी सारी क्षमता को लगा देंगें और अखिलेश यादव-मायावती टीम को सफल होने से रोकने की हर कोशिश करेंगे .

मायावती -अखिलेश के गठबंधन को कमज़ोर करने की दिशा में बीजेपी ने सारी राजनीति को दलित और पिछड़ा केन्द्रित करने की कोशिश शुरू कर दी है . पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्ज़ा देना उसमें प्रमुख है . दलितों को अपने पक्ष में करने के लिए बीजेपी की केंद्र सरकार ने एस सी \ एस टी एक्ट में बदलाव करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नया कानून लाकर सुप्रीम कोर्ट की मंशा को बदल दिया है. दलित वोट को अपनी तरफ करने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने बड़ा खतरा लिया है . उत्तर प्रदेश की राजनीति का मामूली जानकार भी बता देगा कि सवर्ण जातियां बीजेपी की मुख्य शक्ति हैं . एस सी \ एस टी एक्ट में बदलाव करके बीजेपी ने सवर्ण जातियों को नाराज़ कर दिया है लेकिन दलितों पर उनकी नज़र है . दिल्ली के सत्ता के गलियारों की राजनीति के जानकार बता रहे हैं कि शिवपाल यादव का सेकुलर मोर्चा भी बीजेपी की उसी रणनीति का हिस्सा है जिसके तहत समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव को उनके घर में ही कमज़ोर करके घेर देने की योजना है . शिवपाल यादव की नाराज़गी का फायदा बीजेपी २०१७ के विधानसभा चुनावों में ले चुकी है . इसलिए प्रोजेक्ट शिवपाल भी बीजेपी के २०१९ की रणनीति का ही हिस्सा बन सकता है .लखनऊ में एक टीवी चैनल के कार्यक्रम को अखिलेश यादव से जब शिवपाल यादव की नाराज़गी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बात को मामूली बताकर टाल दिया और कहा कि चुनाव करीब आने पर इस तरह की मिसाइलें दागी जायेंगी .इसका आशय यह हो सकता है कि उनके दिमाग में कोई योजना है कि शिवपाल से होने वाले नुकसान को कैसे कंट्रोल किया जाएगा . वैसे शिवपाल यादव ने इलाहाबाद के नेता अतीक अहमद को साथ लेने की पेशकश करके अपनी योजना का संकेत दे दिया है . साफ़ संकेत है कि बाहुबली वर्ग उनके साथ है और अखिलेश यादव से नाराज़ सपाइयों के लिए शिवपाल का दरबार कोपभवन का काम करेगा . उस कोपभवन में बाहुबलियों की एक जमात दस्तक दे रही है.

अखिलेश यादव की समस्या यह है कि वे शिवपाल यादव को बहुत महत्व नहीं दे सकते . उनकी रणनीति में बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती का साथ सबसे महत्वपूर्ण है . शिवपाल यादव से मायावती को बहुत ही ज़्यादा गुस्सा है . वे लखनऊ का गेस्ट हाउस काण्ड कभी नहीं भूल सकतीं . उस काण्ड के बारे में कहा जाता है कि शिवपाल यादव के साथ आये कुछ गुंडों ने मायावती को अपमानित किया था. जब मायावती और अखिलेश यादव की राजनीतिक निकटता बढ़ी तो मायावती से गेस्ट हाउस काण्ड के बारे में पूछा गया था . उन्होंने कहा कि उसका विलेन कोई और था , अखिलेश यादव तो उन दिनों बच्चे थे . यानी वे अखिलेश यादव के साथ राजनीतिक रिश्ता रखने को तो तैयार हो सकती हैं लेकिन गेस्ट हाउस काण्ड के कथित कर्ता धर्ता को स्वीकार नहीं करेंगी . शिवपाल यादव से दूरी बनाकर अखिलेश यादव ने स्पष्ट कर दिया है कि वे मायावती को नाराज़ नहीं करना चाहते और शिवपाल यादव से अब उनका राजनीतिक वैमनस्य शुरू हो चुका है . इसी वैमनस्य की बुनियाद पर सपा-बसपा गठबंधन बनाने की योजना क्या रंग लाती है ,यह वक़्त ही बताएगा

(वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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