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मोदी विरोधी भी मानते हैं, कि RSS के मुकाबले कांग्रेस जनता को समझने की कूवत खो चुकी है

बीजेपी विरोधी भी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुक़ाबले, कांग्रेस आम लोगों के मनोविज्ञान को समझने-पढ़ने और जनता के साथ होने की कूवत खो चुकी है।

New Delhi, Jul 24 : जब भी अपने प्रगतिशील मित्रों से साम्यवाद पर बात होती है, तो अपनी कमज़ोरियों को लेकर होने वाली बहस के सामने अक्सर ‘रणनीति’ का पर्दा सरका देते हैं। सीपीआई(एमएल) के विनोद मिश्र के निधन के बाद से ही यह रणनीतिक पर्देदारी जारी है। मोदी के उभार के बाद इस रणनीतिक पर्देदारी के ही तहत कांग्रेस का दामन थाम लिया गया है। अब तो राहुल के पक्ष में आती प्रतिक्रियाओं में उस रणनीतिक पर्देदारी में मनोवैज्ञानिकता की छौंक भी दिख-बह रही है।

कुछ मित्रों का कहना है कि राहुल ने मनोवैज्ञानिकों की सलाह पर संसद में दो दो-चार प्वाइंटर्स दे मारे हैं और मोदी चारों खाने चित्त कर दिये गये हैं।इससे राहुल को कुछ ज़्यादा हासिल हुआ है। असल में कोई भी नेतृत्व किसी एक बहस से किसी को न चारों ख़ाने चित्त कर सकता है और न ही मनोवैज्ञानिक रूप से जनता का लाड़ला बन जाता है।इसकी संगठनात्मक राजनीति की एक बड़ी लम्बी और परिश्रमी प्रक्रिया होती है। संसद में राहुल द्वारा मनोवैज्ञानिकों की सलाह पर मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल करने का सिद्धांत अपनी व्याख्या को संतुष्ट करने वाला एक छद्म मनोविज्ञान ही है। मनोवैज्ञानिकों की सलाह पर राजनीति नहीं होती। राजनीति का अपना मनोविज्ञान होता है और मनोविज्ञान की अपनी राजनीति होती है। दोनों का,दोनों ही के बीच का संतुलन, कीचड़-लीचड़ पगडंडियों,धूल उड़ाती सड़कों,ठिठुरते जाड़ों,आग बरसाती गर्मियों,फटते बादलों की बौछारों,वर्षा के हाहाकारों, पठारों, पहाड़ों, बाढ़-सुखाड़ों आदि-आदि में जनता के साथ ठहकर-रच-बसकर ही सधता है।

कुशल नेतृत्व को जनता वाली भाषा भी वहीं से मिलती है और जनता की समस्या को समझने की कूवत भी उन्हीं के बीच से पैदा होती है और उनकी भावनाओं से ख़ुद को जोड़ने की तिलस्म वाली रणनीति भी वहीं से हासिल होती है। इस मायने में समर्थन-विरोध,कट्टरता-उदारता की बहस के बीच राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कोई तोड़ नहीं है। बीजेपी विरोधी भी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुक़ाबले, कांग्रेस आम लोगों के मनोविज्ञान को समझने-पढ़ने और जनता के साथ होने की कूवत खो चुकी है। आरएसएस जहां पारिवारिक स्तर पर जाकर अपना रिश्ता गांठता है, वहीं कांग्रेस ज़िला स्तर पर भी अपने संगठन में मज़बूती नहीं ला पायी है। फिलहाल इसके कोई आसार भी नहीं नज़र आ रहे हैं। इस बात को स्वीकार कर लिया जाना चाहिए कि कांग्रेस का मुक़ाबला बीजेपी से नहीं,उसी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से है।बीजेपी,आरएसएस के रूप में जाना जाने वाले फ़ोर्स का राजनीतिक पोस्टर भर है। संभव है कि इस राजनीतिक पोस्टर वाली सरकार से ऊबकर जनता थोड़ी देर के लिए भले ही कांग्रेस या इन्हीं जैसे पार्टियों के गठबंधन के हाथों में सत्ता थमा भी दें,तो यक़ीन मानिये सत्ता हाथ से फ़िलसते देर नहीं लगेगी,क्योंकि इन पार्टियों के साथ लम्बे समय तक आम लोगों का अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं। इस अनुभव का इतिहास ज़्यादा नहीं,सिर्फ़ चार-पांच साल ही पुराना है।
हक़ीक़त है कि लालफ़ीताशाही की जकड़ के बीच जनधन योजना और उज्ज्वला योजना का गांव-देहातों में व्यापक असर है,ठीक इसके विपरीत प्रधानमंत्री का अपनी सभाओं में उनके बड़बोलेपन और विचित्र सामान्य इतिहास बोध,उनके पढ़े-लिखे समर्थकों में भी ऊब पैदा करने लगे हैं। सरकार की मेक इन इंडिया,स्किल इंडिया और स्टार्ट-अप जैसी महत्वाकांक्षी योजनायें सरकारी स्तर पर सफल घोषित भले ही कर दी जा रही हों,लेकिन धरातल पर दिखती जनधन और उज्ज्वला की कामयाबी की तरह ज़मीन पर सरेआम कहीं नहीं दिख रही हैं। रोज़गार की हालत ख़स्ता है,शिक्षा व्यवस्था गुणवत्ता के स्तर पर पस्त है, लोगों में हताशा है।लेकिन इन तमाम हताशाओं के बीच उनकी बड़ी आशा वही राष्ट्रीय स्वयं स्वक संघ है,जो जनता के बीच जाकर उन्हें आने वाले दिनों की बेहतरी के लिए इस संकट को एक ज़रूरी शर्त बताने की सफल कोशिश में है। आरआसएस के मुक़ाबले,सिर्फ़ जातीय आधार पर समर्थन वाली पार्टियां ही थोड़े बहुत अपनी मौजूदगी दर्शाती हैं।संगठनात्मक स्तर पर इन पार्टियों की हालत भी अच्छी नहीं कही जा सकती है।

मोदी से हो रहा मोहभंग जैसे-जैसे अपने चरम पर पहुंचेगा,देश में नेतृत्व-जड़ता का संकट और गहरा होगा।ऐसा तीन कारणों से है-पहला तो यह कि कांग्रेस में राहुल के अनिवार्य नेतृत्व ने कुशल और मज़बूत नेतृत्व की संभावना को लगभग कुचल दिया है और दूसरा कि स्वयं बीजेपी में वटवृक्ष बनते मोदी ने अपने पास किसी के पनपने की गुंजाईश को बेहद कमज़ोर कर दिया है।तीसरा कि सोशल मीडिया से मुद्दों को प्रभावित करने में कामयाब रहे साम्यवादी कार्यकर्ताओं में लोगों के बीच जाकर काम करने का माद्दा क़रीब-क़रीब ख़त्म हो गया है। इस संकट का समाधान सिर्फ़ संगठन आधारित वही पार्टी दे सकती है,जिसके कार्यकर्ताओं में बदलाव के सैद्धांतिक नहीं,बल्कि व्यावहारिक जोश हों और यह जोश कहीं और से नहीं,बल्कि मज़बूत और भविष्यद्रष्टा नेतृत्व ही दे सकता है। राहत की बात है कि इतिहास हमें बार-बार समझाता है कि संकट से ही नामालूम मगर मज़बूत नेतृत्व पैदा होता है।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र चौधरी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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