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तो क्या यह भी मी टू ही था ?

देर शाम कोई आठ बजे रामलाल ने मोहतरमा का हालचाल लेने के लिए फ़ोन किया और पूछ लिया , कैसी हैं । मोहतरमा बेकत्ल्लुफ़ हो कर बोलीं , अकेली हूं ।

New Delhi, Oct 10 : एक समय उत्तर प्रदेश में मुख्य सचिव थे रामलाल । मुख्य सचिव मतलब प्रदेश का सब से बड़ा अफ़सर । नारायणदत्त तिवारी मुख्य मंत्री थे और इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री । लंदन से एक मिनिस्टर सपत्नीक आए थे सरकारी यात्रा पर । मंत्री की पत्नी के पिता ब्रिटिश पीरियड में लखनऊ की रेजीडेंसी में रह चुके थे । मिनिस्टर की पत्नी बिना किसी प्रोटोकाल के लखनऊ घूमना चाहती थीं । रेजीडेंसी देखना चाहती थीं । पिता की यादों को ताज़ा करना चाहती थीं । इंदिरा जी ने नारायणदत्त तिवारी से बिना किसी प्रोटोकाल के किसी सीनियर अफ़सर को उन के साथ लगा देने को कहा । तिवारी जी ने सीधे मुख्य सचिव को ही उन के साथ लगा दिया । मुख्य सचिव रामलाल ने मोहतरमा के साथ पूरा सहयोग करते हुए लखनऊ घुमाया। मोहतरमा उन के साथ बहुत ही सहज हो गईं । कह सकते हैं कि खूब खुल गईं ।

देर शाम कोई आठ बजे रामलाल ने मोहतरमा का हालचाल लेने के लिए फ़ोन किया और पूछ लिया , कैसी हैं । मोहतरमा बेकत्ल्लुफ़ हो कर बोलीं , अकेली हूं । रामलाल तब तक देह में शराब ढकेल चुके थे । कुछ शराब का असर था , कुछ मोहतरमा की बेतकल्लुफी । रामलाल बहक गए । सो बोले , कहिए तो मैं जाऊं , अकेलापन दूर कर दूं । मोहतरमा ने बात टाल दी और पलट कर अपने पति से रामलाल की लंपटई की शिकायत की । पति ने इंदिरा गांधी को यह बात बताई । इंदिरा गांधी फोन कर नारायणदत्त तिवारी पर बरस पड़ीं कि किस बेवकूफ को साथ लगा दिया ! अब दूसरे दिन रामलाल जब आफिस पहुंचे तो वहां उन के आफ़िस में ताला लटका मिला । ताला देखते ही वह भड़क गए । बरस पड़े कर्मचारियों पर । लेकिन ताला फिर भी नहीं खुला । तो वह और भड़के , कि तुम सब की नौकरी खा जाऊंगा ! लेकिन ताला नहीं खुला तो नहीं खुला ।

मौका देख कर एक जूनियर अफ़सर उन के पास आया और धीरे से बताया कि माननीय मुख्य मंत्री जी के निर्देश पर यह सब हुआ है , कृपया माननीय मुख्य मंत्री जी से मिल लीजिए । अब रामलाल के होश उड़ गए कि क्या हो गया भला ? भाग कर मुख्य मंत्री आवास गए । तिवारी जी शालीन व्यक्ति हैं , संकेतों में सब समझा दिया । लेकिन रामलाल अब मुख्य सचिव नहीं रह गए थे । उन्हें परिवहन निगम का चेयरमैन बना दिया गया था । लेकिन तब यह खबर किसी अख़बार में नहीं छपी । लेकिन बहुत पहले जब यह किस्सा एक आई ए एस अफ़सर ने मुझे सुनाया तो मैं ने उन्हें खुमार बाराबंकवी का एक शेर सुना दिया :

हुस्न जब मेहरबां हो तो क्या कीजिए
इश्क के मग्फिरत की दुआ कीजिए ।
कोई धोखा न खा जाए मेरी तरह
सब से खुल कर न ऐसे मिला कीजिए ।
तो क्या यह भी मी टू ही था ?

(वरिष्ठ पत्रकार दयानंद पांडेय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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