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विकास से शाश्वत परहेज करने वाले ये चार राज्य

आखिर वजह क्या है इस हिंदी पट्टी के कुछ राज्यों के शाश्वत उनीदेपन का या यूं कहें कि विकास न करने की जिद की ?

New Delhi, Oct 05 : विश्व बैंक ने एक नया शब्द -समूह बनाया है — रिफ्युजिंग-टु-डेवेलप-कन्ट्रीज (आर डी सीज) याने हिंदी में कहें तो “विकास से परहेज करने वाले देश” (विपद). इसका प्रयोग बैंक ने दक्षिण एशियाई देशों की विकास के प्रति स्पष्ट संभावनाएं रहते हुए भी उदासीनता को लेकर विगत सोमवारको जारी अपनी एक रिपोर्ट में किया है. अगर भारत के विकास विश्लेषक इसका प्रयोग करना चाहें तो उत्तर भारत के कम से कम चार बड़े राज्यों के लिए जिनमें से कुछ के लिए एक ज़माने में अर्थशास्त्री आशीष बोस ने “बीमारू” राज्य शब्द -संक्षेप गढ़ा गया था, कर सकते हैं. याने “विकास से परहेज करने वाले क्षेत्र” (विपक्ष). इस रिपोर्ट के ७२ घटें पहले संयुक्तराष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू एन डी पी) ने भी एक रिपोर्ट जारी की जो दुनिया के देशों के अलावा भारत के राज्यों में लोगों की गरीबी -जनित अभाव की स्थिति को लेकर है जिसे बहु-आयामी गरीबी सूचकांक (मल्टी -डायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स –एम् पी आई) कहते है.

दरअसल इस सूचकांक को सन २०१० में मानव विकास सूचकांक के सभी तीन पैरामीटर्स ––जीवन -स्तर, शैक्षणिक और स्वास्थ्य-संबंधी— और उनसे पैदा हुए अभाव के कुल दस पैरामीटर्स को लेकर बनाया गया है. इसके अनुसार जहाँ केरल हमेशा की तरह अव्वल रहा है वहीँ बिहार हमेशा की तरह सबसे नीचे के पायदान पर. शायद विंस लोम्बार्डी के उस मशहूर कथन को चरितार्थ करते हुए — विनिंग इज अ हैबिट, अनफोर्चुनेटली सो इज लूजिंग” (जीतना एक आदत होती है , दुर्भाग्य से हारना भी). इस नयी रिपोर्ट में बताया गया था कि जहाँ भारत ने पिछले दस सालों में याने २००५-०६ से २०१५-१६ तक अपनी गरीबी (५५ प्रतिशत से २८ प्रतिशत) आधी ख़त्म कर ली वहीँ कुछ राज्य जैसे बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश , और मध्य प्रदेश अभी भी घिसटते हुए चल रहे हैं और इनमें देश के कुल गरीबों का आधे से ज्यादा (१९.६० करोड़) शाश्वत गरीबी और तज्जनित अभाव की गर्त से निकलने की आस में तिल-तिल कर मर रहे हैं. यू एन डी पी के वे दस पैरामीटर्स हैं : पोषण, बाल मृत्यु , स्कूल जाने का काल, स्कूल में उपस्थिति, खाना बनाने वाले ईंधन की उपलब्धता, स्वच्छता, पेय जल, बिजली के उपलब्धता , घर और संपत्ति.. रिपोर्ट के अनुसार, इन दस पैरामीटर्स में से सात में बिहार, दो में झारखण्ड (और उनमे से एक में मध्य प्रदेश भी साथ में )और एक में उत्तर प्रदेश सबसे नीचे हैं जबकि ठीक इसके उलट केरल दस में से आठ में , एक में दिल्ली और एक में पंजाब सबसे ऊपर हैं.

आखिर वजह क्या है इस हिंदी पट्टी के कुछ राज्यों के शाश्वत उनीदेपन का या यूं कहें कि विकास न करने की जिद की ? मोब लिंचिंग (भीड़ न्याय) में तो यही राज्य भारत में सबसे अव्वल हैं? अर्थात इन समाजों में सामूहिक चेतना जबरदस्त है जो गाय, बैल , वन्दे मातरम , धार्मिक उन्माद को लेकर अचानक सड़क पर हीं न्याय कर डालती है फिर जो हाथ किसी को मारने के लिए उठते हैं वही बच्चे को पोषक भोजन खिलाने के लिए क्यों नहीं या उस ठेकेदार के खिलाफ आवाज उठाने में क्यों नहीं जो उसके गाँव से निकलने वाली सड़क ऐसी बनाता है जो एक बरसात के बाद तालाब में तब्दील हो जाती है, या उस व्यक्ति या व्यक्ति-समूह के खिलाफ आवाज उठाने में क्यों नहीं जो महीनों और सालों अनाथ आश्रम में मासूम बच्चियों से बलात्कार करते रहे हैं ? कैसे कोई खतरनाक आपराधिक पृष्ठभूमि वाला गुंडा चुनाव-दर -चुनाव इसी जनता के मत हासिल करते हुए देश के प्रजातंत्र के सबसे “पवित्र” मंदिर पहुँच जाता है? क्या तब यह सामूहिक चेतना विलुप्त हो जाती है ? राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (चौथा चक्र) के रिपोर्ट का जिक्र करते हुए बिहार के समाज कल्याण विभाग ने भी माना है कि प्रदेश में पैदा होने वाला हर दूसरा बच्चा (४८.३ प्रतिशत) कुपोषण -जनित ठूंठपन (नाटा) या कम वजन का हो रहा है याने भविष्य में एक बीमार नागरिक के रूप रहेगा—शारीरिक हीं नहीं मानसिकरूप से भी.

विकास से परहेज का एक और उदाहरण देखें. प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना अपनी पूर्ववर्ती तीन योजनाओं के मुकाबले एक बेहद अच्छी योजना है लेकिन बिहार एक एकेला राज्य था जिसने शुरू से हीं इसका विरोध किया किसी न किसी बहाने. राज्य की अपनी स्वयं की योजना अमल के अभाव में दम तोड़ रही है नतीजा यह कि हाल में नाबार्ड द्वारा जारी किसानों की आय संबंधी रिपोर्ट के अनुसार झारखण्ड, उत्तर प्रदेश , बिहार और मध्य प्रदेश सबसे नीचे है वहीँ पंजाब और हरियाणा सबसे ऊपर. यू एन डी पी के रिपोर्ट के अनुसार इन गरीबों में जहाँ अनुसूचित जनजाति का हर दूसरा व्यक्ति है उच्च जाति का हर सातवाँ , ईसाई समाज का हर छठवां और मुसलमान समुदाय का हर तीसरा.

आपराधिक उदासीनता का कारण
परिवार नियोजन के अमल में पिछले कई दशकों से पूरी तरह असफल या आपराधिकरूप से उदासीन रहने वाला अगर कोई राज्य रहा है तो वह है बिहार. आज बिहार का आबादी घनत्व ११०५ व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर राष्ट्रीय औसत से तीन गुना ज्यादा है जबकि उत्तर प्रदेश का लगभग दूना. इस वर्ष के १० मार्च को जनसँख्या नियंत्रण पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के अनुपालन में एक कार्यक्रम में बोलते हुए केंद्र सरकार के परिवार नियोजन विभाग के उपायुक्त एस के सिकधर ने बताया कि बिहार की सरकार लगभग हर दूसरे दंपत्ति को परिवार नियोजन के आधुनिक उपादान उपलब्ध करने में असफल रही है. यह शायद उदासीनता की पराकाष्ठा है और वह भी तब जबकि सरकारें यह जानती हैं कि देश में सर्वाधिक जनसँख्या वृद्धि दर में अव्वल बिहार की गरीबी और तज्जनित अभाव का कारण भी यही जनसँख्या है. इस पर तुर्रा यह कि जहाँ जागरूक दम्पत्तियों को आधुनिक गर्भ निरोधक उपादान उपलब्ध नहीं हैं वहीँ इनके प्रति जागरूकता भी नगण्य (मात्र तीन से चार प्रतिशत ) है. दशकों तक सरकारों की तरफ से जागरूकता अभियान के अभाव में बिहार में हर आठवां बच्चा १८ साल से कम की मां द्वारा पैदा किया जाता है यही वजह है कि बाल- एवं जननी- मृत्यु दर भी ज्यादा है. उधर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार झारखण्ड में हर चौथे दिन मानसिकरूप से बीमार महिला की ईंट से मर कर हत्या कर दी जाती है यह मानते हुए कि डायन है और पूरे गाँव को खा जायेगी. साथ दशकों से प्रजातान्त्रिक ढंग से चुनी सरकारें बिहार या झारखण्ड में अपेक्षाकृत अशिक्षित जनता को यह नहीं समझा पायी कि भीड़ किसी महिला को जान से नहीं मार सकती और न हीं “डायन” का डर हटा पाई. शायद लोम्बार्डी सही थे — हार इन हिंदी पट्टी के राज्यों की आदत है।

(वरिष्ठ पत्रकार एन के सिंह के ब्लॉग से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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