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हमारी न्याय व्यवस्था यानी आधा तीतर आधा बटेर

जिला एवं अधीनस्थ अदालतों में न्यायिक अधिकारियों के 5746 पद खाली पड़े हैं। एक जज पर औसतन 11 हज़ार मुकदमों का बोझ है।

New Delhi, Jul 22 : हमारे यहां तो सिस्टम ऐसे ही ‘आधा तीतर आधा बटेर’ जैसा है। उसमें भी जब दो शीर्ष संवैधानिक संस्थाओं के बीच टकराव हो जाये तो स्थिति और विकट हो जाती है। कुछ समय से केंद्र सरकार और शीर्ष न्यायपालिका के बीच रिश्ते सामान्य नहीं हैं। सरकार जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को ज्यादा जवाबदेह और पारदर्शी बनाना चाहती है। जजों की नियुक्ति की मौजूदा कॉलेजियम व्यवस्था पर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं। इसमें बदलाव की मांग जोर पकड़ती जा रही है। लेकिन शीर्ष न्यायपालिका अपना एकाधिकार छोड़ना नहीं चाहती। टकराव इसी को लेकर है।
इस टकराव का नतीजा यह है कि ऊपर से लेकर निचली अदालत तक न्यायाधीशों के पद बड़ी संख्या में खाली हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का पद 16 महीने से खाली पड़ा है। कार्यकारी सीजे से काम चलाया जा रहा है। यह अपने आप में एक रिकार्ड है। देश के किसी हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश का पद इतने लम्बे समय तक खाली नहीं रहा। इतने लम्बे समय तक कोई कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश कार्यरत नहीं रहा।

अभी कॉलेजियम ने दिल्ली हाईकोर्ट के सीजे के लिए जो नाम सरकार को भेजा था, उसे केंद्र ने वापस कर दिया है । इससे फिलहाल स्थायी सीजे की नियुक्ति की संभावना नहीं दिख रही है। पूरे देश में न्यायपालिका की स्थिति बेहद खराब है। लोगों को न्याय नहीं मिल रहा। देश में अपराध और हिंसा बढ़ने की बड़ी वजह समय पर न्याय नहीं मिलना भी है। कहते हैं देर से मिला न्याय नहीं है। यह एक विचित्र विडम्बना ही है कि मुकदमों का बोझ बढ़ा लेकिन जजों की संख्या घटी ! अभी देश के 24 हाईकोर्टों में न्यायाधीशों के 400 से अधिक पद रिक्त हैं। पटना हाईकोर्ट में 21 ,इलाहाबाद में 54 ,आंध्र -तेलंगाना में 32, कर्नाटक में 33, कलकत्ता में 35, दिल्ली में 24 और बॉम्बे हाईकोर्ट में न्यायाधीशों के 25 पद रिक्त हैं। जानकारी के मुताबिक़ सुप्रीम कोर्ट में जजों के 6 पद रिक्त हैं।

जिला एवं अधीनस्थ अदालतों में न्यायिक अधिकारियों के 5746 पद खाली पड़े हैं। एक जज पर औसतन 11 हज़ार मुकदमों का बोझ है। पूरे देश में करीब 3 करोड़ मुकदमें विभिन्न कोर्टों में वर्षों से पेंडिंग हैं। ऐसे में साल दर साल तारीख पर तारीख नहीं मिलेगा तो क्या होगा ? देश में अदालतों और जजों की संख्या बेहद कम है। अभी एक लाख की आबादी पर औसतन एक जज हैं। जबकि 1987 में ही विधि आयोग ने एक लाख की आबादी पर कमसे कम 5 जजों का पद सृजित करने की अनुशंसा की थी। लेकिन उसपर किसी सरकार ने अमल नहीं किया। न्यायपालिका पर कुल बजट का अधिकतम 0. 4 प्रतिशत खर्च होता हैं। धन की कमी से न्याय सुलभ नहीं हो रहा।

न्याय व्यवस्था की इस दुर्दशा का सबसे ज्यादा खामियाजा आम आदमी को उठाना पड़ रहा है। रसूखदार तो किसी तरह से फैसला करवा ले रहा है लेकिन आम आदमी को सिर्फ तारीखें मिल रहीं हैं। इस स्थिति को सुधारने के लिए न सरकार चिंतित दिखती है न न्यायपालिका। आम आदमी को त्वरित न्याय कैसे मिले यह शायद किसी की प्राथमिकता सूची में नहीं है। सिर्फ ‘पॉवर पॉलिटिक्स’ हो रहा है।
भारतीय न्यायपालिका की उज्जवल और गौरवशाली परंपरा रही है। समय की जरूरतों के साथ न्यायपालिका बदलाव के पक्ष में खडी रही है। अपने फैसलों से उसने सार्थक और जनहितकारी बदलाव की प्रक्रिया को तेज किया है ,उसे शक्ति दी है। कॉलेजियम प्रथा को तर्कसंगत और पारदर्शी बनाने की उसे खुद पहल करनी चाहिये। इससे उसका सम्मान और जनता का भरोसा और बढ़ेगा। विवाद से कभी कोई हल नहीं निकला है। शीर्ष न्यायपालिका और शिखर सत्ता को साथ बैठ कर रास्ता निकालना चाहिए। दोनों संस्थाओं पर जनता का भरोसा है और दोनों जनता के लिए ही काम करते हैं। जनता का विश्वास टूटे नहीं, उसे शीघ्र न्याय मिले, इसकी जिम्मेवारी दोनों पर है। पूर्वाग्रह और हठधर्मिता छोड़िये ,खुले दिल से आगे बढिये और एक नयी सुबह का आगाज कीजिये। देश आपकी ओर उम्मीद से देख रहा है।

(वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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