New Delhi, Aug 03 : `न्यू इंडिया’ नरेंद्र मोदी की वजह से नहीं है बल्कि मोदी के होने की वजह ही वह `न्यू इंडिया’ है, जो ना जाने कब से मौजूद था। समाज जैसा होता है, उसे नेतृत्व भी वैसा ही मिलता है। सुनने में यह वाक्य बहुत ही घिसा हुआ लगता है `सिनेमा समाज का दर्पण है’ की तरह। लेकिन हर सच्ची बात इतनी ही घिसी हुई लगती है।
एक और घिसी हुई बात यह है कि बिना समाज बदले राजनीति नहीं बदल सकती है। आज के जमाने में यह दलील उन लोगो को सबसे ज्यादा सूट करती है जो मौजूदा व्यवस्था और नेतृत्व पर उठने वाले हर सवाल को दबाने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। लेकिन सच आखिर सच है।
गांधी ने अपना पूरा जीवन समाज को बदलने में लगाया, तब जाकर राजनीति बदली और वह बदलाव भी उनके युग के खत्म होते ही धीरे-धीरे मिट गया। साध्य की प्राप्ति के लिए साधन का पवित्र होना आवश्यक है, यह बात किसी देवदूत ने गांधी को नहीं बताई थी। लंबे चिंतन और प्रयोगो से यह उन्होने खुद सीखा था। वे जानते हैं कि सच का रास्ता मुश्किल होता है। नैतिक शक्ति जुटाने में बरसो लगते हैं और एक छोटी सी गलती पल भर में पूरी तपस्या को स्वाहा कर सकती है।
गांधी सत्य को लेकर उस आवाम से बार-बार टकराते रहे, जिसकी वे नुमाइंदगी करते थे। जनता कभी गांधी सी चिढ़ती थी, कभी उन्हे गालियां देती थी। लेकिन उनकी नैतिक शक्ति के आगे हथियार डालकर पीछे-पीछे चलने को मजबूर हो जाती थी। कम बेईमान लोग ज्यादा बेईमान लोगो के खिलाफ कभी जीत नहीं सकते, यह एक शाश्वत सत्य है।
बेईमान व्यवस्था और भ्रष्ट राजनीति सबसे पहले अपने खिलाफ खड़े लोगो की विश्वसनीयता पर हमला करती है। येन-केन प्रकारेण यह साबित किया जाता है कि उंगली उठाने वाले लोग भी कोई दूध के धुले नहीं है। यह रणनीति नई नही है। हर दौर में सत्ताधीश इसका इस्तेमाल करते आये हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि मौजूदा समय यह राष्ट्रधर्म है।
कॉरपोरेट मीडिया इस देश में कोई नया नहीं है। लेकिन अपनी बेशुमार कमियों के बावजूद यही कॉरपोरेट मीडिया बीच-बीच में बहुत कुछ ऐसा कर जाता था, जिससे जनता को यह उम्मीद बंधती थी कि इस देश में उनके हितों की रक्षा करने वाला कोई है। मैं ऐसी बीसियों वाकयों का गवाह रहा हूं, जब केंद्रीय मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और ना जाने कितने ताकतवर लोगो की कुर्सियां मीडिया कवरेज की वजह से गईं। वह वक्त भले ही ज्यादा पुराना ना हो लेकिन बहुत अलग था।
राजनेता खुद को नैतिकता के धरातल पर पत्रकारों से नीचे मानते थे। चोरी और सीनाजोरी पूरी तरह से चोली-दामन नहीं बने थे। गलत काम करने वालों में मीडिया का डर था। लेकिन लोग यह भूल गये थे कि आर्थिक उदारीकरण ने देश की संस्थाओं को निगलना शुरू कर दिया है और मीडिया उसका पहला निवाला बनने वाला है। पत्रकारों की माली हालत तेजी से सुधर रही थी लेकिन साख धीरे-धीरे घट रही थी। लंबी गाड़ियों के साथ एक्सचेंज ऑफर में संपादक अपनी स्वायत्ता खुशी-खुशी सीईओ और ब्रांड मैनेजर को सौंप रहे थे। एस.पी.सिंह और टाइम्स ऑफ इंडिया के कुछ संपादकों को छोड़कर मीडिया जगत का कोई अगुआ उस वक्त यह नहीं समझ पाया कि एक दिन जब टाइम बम फटेगा तो क्या होगा।
आज तमाम मीडिया संस्थान सरकार के कदमों में हैं। नोएडा से चलने वाले कथित राष्ट्रीय चैनलों में किसी का लाखो रुपये का बिजली बिल बकाया है। किसी की बिल्डिंग को अब तक नो ऑब्जेक्शन सार्टिफिकेट नहीं मिला है। कहीं इनकम टैक्स का मामला है तो किसी के खिलाफ कोई पुराना मुकदमा है। क्या आपको लगता है कि ये ऐसे तमाम चैनल लोकतंत्र की लड़ाई लड़ पाएंगे? वो जमाना गया जब रामनाथ गोयनका और उनके संपादक इमरजेंसी में बिजली काटे जाने पर मोमबत्तियां जलाकर इंडियन एक्सप्रेस छाप लिया करते थे।
ईपीडब्ल्यू के परंजय गुहा ठाकुरता, ट्रिब्यून जैसे प्रतिष्ठित अखबार हरीश खरे और ना जाने कितने बड़े संपादकों ने उन खबरों की वजह से अपनी नौकरी गंवाई जो सरकार को पसंद नहीं थी। क्या आपने पत्रकार समुदाय किसी तरह की चिंता देखी? दरअसल पत्रकार समुदाय नाम की कोई चीज़ अब बची ही नहीं है। एबीपी न्यूज के शीर्ष संपादकीय नेतृत्व के साथ जो कुछ उसका संदेश बहुत साफ है। जो फड़फड़ाएगा उसके पंख काट दिये जाएंगे। संदेश कारगर तरीके से काम कर रहा है। सोशल मीडिया पर मुखर रहने वाले अलग-अलग चैनलों के कर्मचारी खामोश हैं। घर की ईएमआई और बच्चो की फीस सबको देनी है। आनेवाले वक्त में मीडिया की स्थिति पर शायद पूर्व पत्रकारों के अलावा कोई नहीं बोल पाएगा।
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