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नफ़रतों का सैलाब है चारो तरफ, एक नाव मोहब्बत की भी चले

न्यू यार्क में सार्वजनिक जगहों पर, घर मकान देने में या सरकारी नौकरी देने में भेदभाव न हो और इसका कानून लागू हो, इसकी ज़िम्मेदारी उस कमिशन की है जिसने ये सर्वे कराया है।

New Delhi, Jul 27 : पगड़ी वाले सरदार जी,Man in turban भारत में आम लोग और मीडिया के टिप्पणीकार कई बार सहजता से बोल जाते हैं। मासूमियत से भी और नहीं जानने के कारण भी कि इससे किसी को बुरा लग सकता है। मज़ाक का दायरा ज़रा सा बढ़ जाए तो इससे किसी का अपमान हो सकता है। अमरीका के न्यू जर्सी में रेडियो प्रजेंटर की जोड़ी ने उपमा और अपमान की रेखा पार कर दी। इंडियन एक्सप्रेस की योशिता सिंह ने इस घटना पर रिपोर्ट फाइल की है। रेडियो प्रजेंटर डेनिस मलॉय और जुडी फ्रांको की बातचीत पहले पढ़िए।

डेनिस- तुम जानते हो, उस अटार्नी जनरल बंदे को? मैं कभी उसका नाम जानने की कोशिश नहीं करूंगा, मैं उसे बस पगड़ी वाले बंदे के रूप में पुकारूंगा।
फ्रांको- टर्बन मैन! ( गुनगुनाते हुए)
डेनिस- अगर आपको यह कहने में बुरा लगता है तो पगड़ी ही मत पहनो और मैं तुम्हारा नाम याद रखूंगा।( दोनों एकसाथ हंसते हैं) लेकिन टर्बन मैन क्या ये बहुत अपमानजनक है?
फ्रांको- मुझे? नहीं। जो लोग पगड़ी पहनते हैं, उन्हें बुरा लग सकता है। लग सकता है
डेनिस- लेकिन जब आप मुझे बेसबॉल हैट मैन कह सकते हैं और मैं इस संस्कृति का था जहां कोई बेसबॉल हैट नहीं पहनता था, तो क्या मुझे बुरा लगना चाहिए?

ये दोनों न्यू जर्सी 101.5 FM के प्रस्तुतकर्ता हैं। न्यू जर्सी के गवर्नर ने गुरबीर ग्रेवाल को अटार्नी जनरल बनाया है जिनके एक फैसले को लेकर ये दोनों एंकर मज़ाक उड़ा रहे थे। न्यू जर्सी के गवर्नर ने इस बात के लिए रेडियो स्टेशन के प्रति नाराज़गी ज़ाहिर की है और कहा है कि इन दोनों के खिलाफ कार्रवाई की जाए। दोनों रेडिए प्रजेंटर को अगले आदेश तक के लिए शो से हटा दिया गया है।
गुरबीर ग्रेवाल अमरीका के पहले सिख अटार्नी जनरल हैं। बड़ी बात है। भारत में किसी दूसरे देश का नागरिक किसी पद पर पहुंच जाए तो पूरा देश इस आशंका को सर उठा लेगा कि देश बिक गया मगर अमरीका या दूसरे मुल्कों में जब भारतीय सांसद बनते हैं तो यहां के अखबारों में कामयाबी के रूप में जश्न मनाया जाता है। ये अलग मसला है। मसला यहां ये है कि अमरीका में सिखों और मुसलमानों के ख़िलाफ़ नस्लभेदी, धार्मिक टिप्पणियां बढ़ती जा रही हैं। भेदभाव बढ़ता जा रहा है।

PROPUBLICA एक न्यूज़ वेबसाइट है। आपको भी एक पाठक के तौर पर इसकी खबरों को पढ़ना चाहिए और सीखना चाहिए। इस साइट पर 16 जुलाई को एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। रहिमा नासा की रिपोर्ट है।
न्यू यॉर्क सिटी कमिशन फॉर ह्यूमन राइट्स ने 2017 में 3000 बाशिंदों को लेकर एक सर्वे किया। जिनमें मुसलमान, यहूदी औऱ सिख बाशिंदे थे। इस सर्वे में पाया गया है कि इन तीनों के साथ काम करने की जगह से लेकर हर जगह धार्मिक भेदभाव होता है। धार्मिक उन्माद से ग्रसित हमले होते हैं। परेशान किया जाता है।

सर्वे में शामिल 38 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन पर तंज किए गए, बोल कर अपमानित किया गया। मज़हब और आस्था का मज़ाक उड़ाया गया। 10 प्रतिथत ने कहा कि उन पर हमले भी हुए हैं। 18 प्रतिशत सिखो ने कहा है कि स्थानीय बिजनेसमैन ने सेवा देने से इंकार कर दिया। अब इसका क्या मतलब है, साफ साफ नहीं लिखा है। मैं समझ रहा हूं कि उनसे बिजनेस नहीं किया या फिर सामान ख़रीदने गए होंगे तो सामान नहीं दिया होगा। कई बार उनके मज़हबी लिबास को फाड़ने की कोशिश की गई।
न्यू यार्क में सार्वजनिक जगहों पर, घर मकान देने में या सरकारी नौकरी देने में भेदभाव न हो और इसका कानून लागू हो, इसकी ज़िम्मेदारी उस कमिशन की है जिसने ये सर्वे कराया है। इसके बाद भी वहां भेदभाव हुआ है। मुसलमानों और सिखों को यह सब झेलना पड़ा है। इनदिनों भारत में तो यह आम है। सांसद रेडियो जॉकी की भाषा खुलेआम बोलते हैं और उसे वैध राजनीतिक जवाब माना जाता है।

भारत में इन्हीं सब बातों को सही ठहराने वाले कम नहीं मिलेंगे। एक पूरी भीड़ आती है तो मज़हब के नाम पर किसी को मार कर चली जाती है। यह भीड़ अचानक नहीं बनती है बल्कि बनाई जाती है क्योंकि भीड़ के खिलाफ कानूनी कार्रवाई आसान नहीं। किसी की स्पष्ट पहचान नहीं होती और किसी का नाम नहीं होता। केस चलता रहता है और अंत में सब बरी हो जाते हैं।
दैनिक भास्कर ने एक सवाल उठाया है। अलग अलग आंदोलनों के नाम पर किसी के मोहल्ले और दुकानों पर हमला करना भी मॉब लीचिंग है तो फिर इनमें शामिल लोगों को क्यों बाद में बरी किया जाता है। भास्कर की रिपोर्ट है कि राजस्थान सरकार गुर्जर आंदोलन और पदमावति फिल्म के विरोध में हुए हिंसक प्रदर्शन से जुड़े 450 केस वापस ले चुकी है और 300 से अधिक केस वापस लिए जाने की तैयारी है।
भीड़ में शामिल लोग भले पुलिस से बच जाएं, अपनी अंतरात्मा से कैसे बचेंगे। कभी तो ख़्याल आएगा कि किसी की हत्या करके आए हैं। वे जीवन भर उन लोगों के ग़ुलाम रहेंगे जिन्हें निजी तौर पर मालूम होता है कि भीड़ में वो शामिल था ।अपने ही लोगों के हाथों केस के कभी खुल जाने का डर उन्हें अगली भीड़ में ले जाएगा। उनसे दोबारा हत्या कराई जाएगी ।मारा तो एक जाता है मगर मारने वाले कितने तैयार हो रहे हैं। वो किस मज़हब के हैं इसकी सूची बना लीजिए तो खेल समझ आ जाएगा

(NDTV से जुड़ें चर्चित वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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