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मोहनजी का नया हिंदुत्व

हिंदुत्व का अर्थ है, विविधता में एकता, उदारता, सहनशीलता, सह-जीवन आदि। उन्होंने हिंदुत्व को नए ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की है।

New Delhi, Sep 20 : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया श्री मोहन भागवत ने दिल्ली के विज्ञान भवन में एक ऐसा आयोजन किया है, जिसमें देश के प्रमुख बुद्धिजीवियों और लगभग सभी दलों के प्रमुख नेताओं को आमंत्रित किया गया था। मुझे भी आग्रह किया गया। भाषण के दूसरे दिन मैं भी गया लेकिन मुझे यह देखकर बहुत दुख हुआ कि वहां दिल्ली का एक भी नामी-गिरामी बुद्धिजीवी नहीं था। भाजपा के मंत्री तो कई थे लेकिन अन्य दलों के जाने-पहचाने बड़े नेता भी वहां दिखाई नहीं पड़े।

इसके अलावा भाषण का विषय था ‘भारत का भविष्य’। इस विषय पर भी मोहनजी कुछ नहीं बोले। वे बोले हिंदुत्व के बारे में और संघ व भाजपा के संबंधों के बारे में। क्या ही अच्छा होता कि वे जमकर तैयारी करते और भावी भारत का ऐसा नक्शा पेश करते, जिससे दिशाहीन मोदी सरकार की कुछ मदद हो जाती और अगले साल यदि कोई नई सरकार आ जाएगी तो उसका भी मार्गदर्शन हो जाता। लेकिन कोई बात नहीं।

उन्होंने पहले और दूसरे दिन जो भाषण दिए, वे सचमुच नई लकीर खींचते हैं। उन्होंने हिंदुत्व और भारतीयता को एक ही सिक्के के दो पहलू बताया है। उनके इस कथन ने उसे और अधिक स्पष्ट कर दिया कि मुसलमान लोग भी हिंदुत्व के दायरे के बाहर नहीं हैं। उन्होंने यह भी कहा कि यह हिंदू शब्द हमें विदेशियों ने दिया है लेकिन अब यह हमसे चिपक गया है।

हिंदुत्व का अर्थ है, विविधता में एकता, उदारता, सहनशीलता, सह-जीवन आदि। उन्होंने हिंदुत्व को नए ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की है। मुझे खुशी है कि मेरी पुस्तक ‘भाजपा, हिंदुत्व और मुसलमान’ में मैंने हिंदुत्व की जो विवेचना की है, मोहनजी उसके काफी नजदीक दिखाई पड़े। लेकिन यहां चुनौती यही है कि क्या हम वही हैं जो दिखाई देना चाहते हैं ? मोहनजी ने यह भी ठीक ही कहा कि उनके पास भाजपा का ‘रिमोट कंट्रोल’ नहीं है। यदि होता तो मोदी सरकार की क्या आज वह दशा होती, जो आज है ? संघ और भाजपा मां-बेटे की तरह हैं। दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं लेकिन यह दावा करना कठिन है कि कौन किसको कब चलाता-घुमाता है। यह पात्रों और परिस्थितियों पर निर्भर रहता है। मोहनजी की इस भाषण-माला में संघ की छवि सुधारने का साहसपूर्ण प्रयास किया गया है लेकिन देश के मान्य बुद्धिजीवियों के साथ संवाद करने की कला अभी संघ को प्रयत्नपूर्वक सीखनी होगी।

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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