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आज प्रभाष जी होते तो सरकार और विपक्ष दोनों को मालूम पड़ जाता कि पत्रकारिता क्या होती है !

आज अगर प्रभाष जी होते तो सरकार और विपक्ष दोनों के झूठ की ईंट से ईंट बजा देते। उनका अपना कोई एजेंडा नही था। जो था वो पत्रकारिता का था।

New Delhi, Aug 13 : सरकार से लड़ना है तो प्रभाष जोशी बनना पड़ेगा। काली कमाई की मोटी तनख्वाहें लेने वाले। एक ईमानदार इनकम टैक्स कमिश्नर को लगभग 10 साल सस्पेंड रखवाने वाले। मैनेजिंग एडिटर की कुर्सी पर गिद्ध दृष्टि लगाकर पत्रकारिता के “अघोषित आपातकाल” का कलमा पढ़ने वाले भला क्या खाकर सरकार से लड़ेंगे! पुण्य प्रसून वाजपेयी, अभिसार शर्मा और रवीश कुमार उर्फ रवीश पांडे का निपट जाना तो प्राकृतिक न्याय है। ये सब इसी के काबिल हैं। जिनकी भी प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत में आस्था है, उनके लिए आज जश्न का दिन है। लीजिए एक सिरे से इन सारे धंधेबाजों के मूल चरित्र को पहचानिए और इस बात का शोक मनाइए कि आज प्रभाष जोशी नही हैं। उनकी जगह ये रंगे हुए…..हैं।

सबसे पहले अभिसार शर्मा। ये वो शख्स हैं जिनकी मोदी सरकार से सारी खुंदक ही इसी बात की है कि इनकी इनकम टैक्स कमिश्नर पत्नी के खिलाफ चल रही जांच अब अंजाम तक पहुंच रही है। ये ईमानदारी के पुतले महाशय जब एनडीटीवी में काम कर रहे थे, उसी वक़्त इनकी पत्नी की कलम से एनडीटीवी को करोड़ों के रिफंड मिल रहे थे। वो भी सारे नियम कानून को रसूख के बुलडोजरों से कुचलते हुए। बदले में एनडीटीवी की ओर से मिला सपरिवार यूरोप यात्रा का मलाईदार पैकेज। एनडीटीवी के खिलाफ राउंड ट्रिपिंग और मनी लॉन्ड्रिंग की जितनी भी शिकायतें आती रहीं, पति पत्नी पूरी तन्मयता से उन्हें किनारे सरकाते रहे और बदले में मोटी सैलरी और बड़ी गाड़ी वाली पत्रकारिता के वाटर कूलर से अपना अपना गला तर करते रहे। इन लोगों के रसूख ने संजय श्रीवास्तव नाम के एक ईमानदार इनकम टैक्स कमिश्नर को यूपीए सरकार के 10 सालों में लगभग लगातार सस्पेंड कराकर रखा क्योंकि उसने इनकी सारी कारगुजारियों का कच्चा चिट्ठा खोल दिया था जो बाद की जांच में सही भी पाया गया। सोचिए, उन्हीं संजय श्रीवास्तव को एक निजी अस्पताल से झूठी रिपोर्ट तैयार कराकर पागल तक करार दिया गया। वो तो भला हो एम्स का जिसने उनका फिर से परीक्षण किया और उन्हें पूरी तरह नार्मल घोषित किया। संजय श्रीवास्तव आज फिर से नौकरी पर हैं। इस शख्स का धुर विरोधी भी इसकी ईमानदारी की मिसाल देता है। कभी उनसे मिलिएगा और पूछियेगा कि उनके परिवार ने गुज़रे 10 सालों में इस सफेदपोश एजेंडेबाज़ कथित पत्रकार के चलते क्या क्या नही झेला! फिर से सोचिए कि ये आदमी व्यवस्था से लड़ने और भगत सिंह का फूफा बनने की बात कर रहा है। चैनल के प्लेटफार्म पर अपनी निजी खुंदक निकालते रंगे हाथों पकड़े गए इस शख्स की कहानी किसी एबीपी न्यूज़ वाले की जुबानी सुन लीजियेगा। बड़ा रस आएगा।

अब पुण्य प्रसून वाजपेयी। इनकी भी तारीफ सुन लीजिए। ये इतने बड़े धंधेबाज पत्रकार हैं कि ज़ी न्यूज़ में रहते हुए अपने सम्पादक सुधीर चौधरी की गिरफ्तारी को पत्रकारिता का “अघोषित आपातकाल” बता रहे थे। उस वक़्त इनकी निगाह जनरल जिया उल हक की आंख की तरह जुल्फिकार अली भुट्टो की “कुर्सी” पर गड़ी हुई थी। लग रहा था कि अब मैनेजिंग एडिटर की कुर्सी अपने हाथ मे आई कि तब आई। मगर जैसे ही अंगूर खट्टे हैं का एहसास हुआ, ये सरकार क्रांतिकारी बन गए और इस्तीफा पटककर चलते बने। ये इतने बड़े सच्चाई और ईमानदारी के स्वघोषित हरिश्चंद्र हैं कि एडिटर इन चीफ बनने की हवस में देश के गरीब निवेशकों के हज़ारों करोड़ हड़पने के आरोपी सहारा के पैरों में पछाड़ खाकर गिर गए। वही सहारा ग्रुप जिसके गिरेबान पर सेबी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक की मार के निशान हैं। जिसकी कमाई के स्रोत पर देश की सर्वोच्च अदालत टिप्पणी कर चुकी है। उसी सहारा के दफ्तर में बैठकर ये अपने “पुण्य” की लालटेन में “पाप” का मिट्टी का तेल उड़ेल रहे थे। इनकी अयोग्यता का ये आलम है कि उस चैनल की रही सही रेटिंग भी डुबो आए और अपने बड़बोलेपन के चलते एक रोज़ धक्के मारकर निकाले गए। एबीपी न्यूज़ में आते ही बड़े अहंकार के साथ सरकार ने दावा किया था कि अब हम आए हैं तो टीआरपी भी आएगी ही मगर इनका शो “मास्टर स्ट्रोक” टीआरपी को रेस में इस कदर फिसड्डी साबित हुआ कि अगर मोदी सरकार उसे संजीवनी न देती तो वो बहुत पहले ही बंद हो जाता। इस शो को जो भी फायदा हुआ वो इसके प्रसारण के दौरान इसके सिग्नल ब्रेक होने से मिली चर्चा से हुआ वरना इसे कब की फ़ालिज मार गयी थी। सोचिए, एक बेहद ही लिजलिजे, मैनेजिंग एडिटर बनने के नाम पर किसी भी चप्पल पर भहरा जाने वाले और चरम अहंकारी व्यक्ति को एक चैनल से उम्मीद थी कि वो उसे अपना व्यक्तिगत एजेंडा चलाने की फ्रेंचाइजी दे दे। ताकि वो एक रोज़ फिर प्रयोजित इंटरव्यू के तुरंत बाद “क्रांतिकारी, बहुत क्रांतिकारी” की सेटिंग करता पकड़ा जाए। ऐसे सेटिंगबाज़ नमूने भला क्या खाकर सरकार से लड़ेंगे! ये प्रभाष जोशी के पैर के नाखून की मैल भी नही हो सकते।

और आखिर में रवीश पांडेय उर्फ रवीश कुमार। वो आदमी जिसकी लाखों की तनख्वाह और शानदार गाड़ी का खर्चा एक ऐसे चैनल से आता है जो कांग्रेस के ज़माने से ही काली कमाई के एक नही अनेक मामलों में फंसा हुआ है। वो आदमी जो एक दलित लड़की की आबरू नोचने के आरोपी “बिहार कांग्रेस के पूर्व उपाध्यक्ष” अपने सगे भाई के खिलाफ एक लाइन तक अपने चैनल पे नही चलने देता है। वो भी तब जब इंडियन एक्सप्रेस से लेकर दैनिक जागरण और आजतक से लेकर एबीपी न्यूज़ तक हर अखबार और हर चैनल में इसके सगे आरोपी कांगेसी भाई की कहानियां छाई हुई थीं। जो अपने चैनल से भारी तदाद में गरीब मीडिया कर्मियों के बेदर्दी से निकाल दिए जाने पर आह तक नही करता और उल्टा सूट बूट नापते हुए दलितों और गरीबों की संवेदना बेचने का कारोबार करता है। सोचिए, ऐसे दोगली और दोहरी सोच के कारोबारी क्या खाकर सरकार से लड़ेंगे? बर्गर खाकर? या फिर पिज़्ज़ा?
हां, आज अगर प्रभाष जी होते तो सरकार और विपक्ष दोनों के झूठ की ईंट से ईंट बजा देते। उनका अपना कोई एजेंडा नही था। जो था वो पत्रकारिता का था। उनके भीतर वो नैतिक साहस था। सच्चाई की वो आग थी। ईमानदारी की वो छटपटाहट थी। ये बहुरुपिये और धंधेबाज भला क्या खाकर सरकार से लड़ेंगे! ये इस दुकान से उठेंगे तो उस दुकान पर गिरेंगे। आखिर में एक बार फिर से, आज प्रभाष जी होते तो सरकार और विपक्ष दोनों को मालूम पड़ जाता कि पत्रकारिता क्या होती है!

(टीवी पत्रकार अभिषेक उपाध्याय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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