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‘विरोधी स्वर की सुरक्षा और सम्मान लोकतंत्र की पहली और सबसे ज़रूरी शर्त है’

इन घटनाओं की पृष्ठभूमि में इमरजेंसी में जो हुआ उस पर विचार कीजिये. किस तरह विरोध का स्वर उठाने वाले पत्रकारों को चुन चुन कर प्रताड़ित किया गया।

New Delhi, Aug 03 : एबीपी न्यूज़ के प्रकरण पर कुछ व्यक्तिगत अनुभव बांटना चाहता हूँ. फेसबुक में खासकर अपनी टाइमलाइन पर ऐसा करने की इजाजत है, इस सुविधा का फायदा उठा रहा हूँ – अपना भोंपू बजाकर कोई लाभ उठाने का कोई इरादा न था और न है. मसला विरोध के स्वर की रक्षा और सम्मान से जुड़ा है, इसलिए संजीदगी से लिख रहा हूँ, संजीदगी से पढ़े जाने की तवक्को भी रखता हूँ.

केंद्र की इस सरकार में भी कम से कम दो वरिष्ठ मंत्री तो ऐसे हैं ही जो मेरी राजनीतिक विचारधारा से भली भांति परिचित हैं. जब भी मिलते हैं तो इस बात को लेकर एकाध उलाहना ठोक ही देते हैं लेकिन मज़ाल क्या कि इस विरोध को कभी उन्होंने दिल पे लगाया हो. इनमे से एक ने तो मुझे अपने मंत्रालय की महत्वपूर्ण कमेटी में भी रखा, मैं उसमे सक्रिय रहा या नहीं ये दीगर बात है.
उत्तराखंड में सूचना आयुक्त बना उस समय सीएम बीजेपी के थे और विपक्ष के नेता कांग्रेस के. मैं दोनों पार्टियों का विरोधी, फिर भी उन्होंने चुन लिया..
कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह जब दक्षिण दिल्ली से चुनाव लड़ रहे थे मैं सांध्य टाइम्स का संवाददाता था. उनका इंटरव्यू किया और उनके विरुद्ध कुछ ऐसी बाते अपने मन से लिख दी जो अब सोचता हूँ नहीं लिखनी चाहिए थी. अगले ही दिन उनके घर के सामने से गुज़र रहा था. उन्होंने गाड़ी रोकी, मुझे बुलाया और हँसते हुए कहा कि आप कुछ भी लिखने के लिए स्वतंत्र हो लेकिन जब आरोप लगा रहे हो भाई तो मेरा पक्ष भी ले लेते. अर्जुन सिंह ताकतवर नेता थे. चाहते तो मालिकों से शिकायत कर सकते थे, नहीं की.

अब इन घटनाओं की पृष्ठभूमि में इमरजेंसी में जो हुआ उस पर विचार कीजिये. किस तरह विरोध का स्वर उठाने वाले पत्रकारों को चुन चुन कर प्रताड़ित किया गया. आरएसएस के अखबार “मदरलैंड” के पत्रकारों को तो जहाँ हाथ लगे वहीं से उठाकर जेलों में ठूंस दिया गया. सिर्फ इसीलिये न कि वो विरोधी विचारधारा के थे. वामपंथी अखबार पैट्रियट और जनयुग के विज्ञापन बंद कर दिए गए. मुझे अच्छी तरह याद है जब जनयुग ने इमरजेंसी की ज़्यादतियों की ख़बरें छापनी शुरू की तो उनके छापेखाने में घंटों घंटों तक बिजली जाने लगी, अखबार छापना मुश्किल हो गया. प्रख्यात पत्रकार निखिल चक्रबर्ती को अपनी मैगज़ीन मेनस्ट्रीम बंद करनी पडी. विरोध के स्वर को बेदर्दी से कुचलने का इससे बुरा उदहारण और क्या होगा.

आज क्या हो रहा है. सवाल किसी एक खांडेकर, किसी एक पुण्यप्रसून या अभिसार का नहीं है. ये सब विरोध के स्वर थे. जैसे भी थे औरों से अलग विरोध का स्वर उठाते थे. विरोध के स्वर का सम्मान ज़रूरी है. केंद्र में बीजेपी के उन दो मंत्रियों और कांग्रेस के अर्जुन सिंह ने विरोध के स्वर पर पलटकर वार नहीं किया, उसका सम्मान किया. और ये सरकार वो कर रही है जो इमरजेंसी में हुआ. विरोध इसे फूटी आँखों नही सुहाता. इसे एकांगी संसद चाहिए और एकांगी पत्रकारिता. ऐसा लोकतंत्र में संभव नहीं है. विरोधी स्वर की सुरक्षा और सम्मान लोकतंत्र की पहली और सबसे ज़रूरी शर्त है. लेकिन इसके लिए छप्पन इंच के सीने की दरकार है. हर कीमत पर सत्ता से चिपके रहने का लालच कायरता को जन्म देता है और यही कायरता कमज़ोर लोगों को सत्ता की शक्तियों के दुरुपयोग को प्रेरित करती हैं – यही फासीवाद का उद्भव बिंदु भी है.
जावेद साहेब की ये कविता बहुत कुछ कह जाती है:
“किसी का हुक्म है कि इस गुलिस्तां में अब सिर्फ एक रंग के ही फूल होंगे..
किसी को कोई ये कैसे बताये कि गुलिस्तां में फूल एकरंगी नहीं होते
हो भी नहीं सकते क्योंकि हर रंग में दबे कुछ और रंग होते हैं
जिन्होंने बाग एकरंगी बनाने चाहे थे, उन्हे ज़रा देखो
जब इक रंग में सौ रंग ज़ाहिर हो गए हैं तो
वो कितने परेशां हैं, कितने तंग रहते हैं……” – जावेद अख्तर.

(वरिष्ठ पत्रकार प्रभात डबराल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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