जस्टिस दीपक मिश्रा ने किया निराश, जस्टिस रंजन गोगोई जगाएं नई आशा !

सुप्रीम कोर्ट की गरिमा बची रहे, इसी के लिए हमने जस्टिस दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस से असहमति जताई थी और जस्टिस मिश्रा के ख़िलाफ़ महाभियोग का भी समर्थन नहीं किया था।

New Delhi, Oct 04 : जस्टिस दीपक मिश्रा संभवतः भारत के इतिहास के सबसे विवादास्पद चीफ जस्टिस रहे। सुप्रीम कोर्ट के अंदर क्या खेल चल रहा था, यह तो नए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई सहित उनके ख़िलाफ़ प्रेस कांफ्रेंस करने वाले चार जज बेहतर जानते होंगे, लेकिन अपने कार्यकाल के आखिरी महीने में जस्टिस मिश्रा ने भारत की आत्मा से जैसा खिलवाड़ किया, वह हम सबने देखा।
जस्टिस दीपक मिश्रा मुझे सस्ती लोकप्रियता के लिए फ़ैसले सुनाने वाले जज के रूप में याद रहेंगे। न सिर्फ़ धारा 377 और धारा 497 पर सुनाए उनके फ़ैसले से, बल्कि सिनेमा हॉलों में सिनेमा शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाने को अनिवार्य करने से जुड़े उनके फैसले से भी हम सहमत नहीं थे। राष्ट्रीय प्रतीकों पर राजनीति अब तक नेता करते रहे हैं, लेकिन हमने देखा कि इसके नाम पर देश की न्यायपालिका से भी एक गैरज़रूरी राजनीतिक फैसला आ सकता है।

केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश देने से जुड़ा फ़ैसला भी एक ग़ैरज़रूरी धार्मिक फ़ैसला था। यह स्त्री-समानता के सिद्धांत की अत्यंत संकुचित व्याख्या है। इस देश में सैकड़ों-हज़ारों-लाखों मंदिर हैं, जहां पुरुष और महिलाएं सभी पूजा कर सकते हैं। केवल एक मंदिर, जिसके साथ कुछ पुरातन मान्यताएं जुड़ी हुई हैं, उसमें महिलाओं के पूजा नहीं करने से किसका क्या बिगड़ रहा था? यह तो वही बात हो गई कि देश में अनेकों स्कूल-कॉलेज हैं कोएड के, लेकिन लैंगिक समानता का मुद्दा उठाकर कल को कुछ लड़के कहने लगें कि उन्हें तो बस गर्ल्स स्कूल या कॉलेज में ही पढ़ना है या फिर कुछ लड़कियां कहने लगेंं कि उन्हें तो केवल बॉयज़ स्कूल या कॉलेज में ही पढ़ना है।

कथित लैंगिक समानता के लिए आए ताबडतोड़ फैसलों के बीच मुझ यह बात भी अखरती रही कि सुप्रीम कोर्ट के 25 जजों में से केवल 3 महिलाएं ही क्यों हैं? हालांकि यह सही है कि यह बदलाव अकेले दीपक मिश्रा नहीं ला सकते थे। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम में ही उस लैंगिक समानता का बोध आना होगा, जिसकी अपेक्षा वे देश के नागरिकों से कर रहे हैं।
तीन तलाक के मुद्दे पर सुनवाई करने के लिए जजों की जो बेंच बनाई गई, उसका गठन धार्मिक आधार पर किया गया। उसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और पारसी धर्म के एक-एक जज बिठाए गए। न्याय के मंदिर में इंसाफ़ करने वाले जजों की धार्मिक पहचान को प्रमुखता देना मुझे अच्छा नहीं लगा। और अगर जजों की पहचान को धार्मिक रंग दिया ही गया था, तो बेंच में एकमात्र मुस्लिम जज जस्टिस अब्दुल नज़ीर के कुछ भी न बोलने से अच्छा संकेत नहीं गया।

हां, कोई भी आदमी पूरी तरह गलत नहीं होता। इसलिए जस्टिस मिश्रा ने कुछ अच्छे फैसले भी सुनाए। ख़ासकर मुंबई बम धमाकों के गुनहगार आतंकवादी याकूब मेमन की फांसी रोकने के तमाम प्रयासों को नाकाम करते हुए जिस तरह की दृढ़ता उन्होंने दिखाई, उसके लिए उनकी तारीफ भविष्य में भी होती रहेगी।
चाहे-अनचाहे, पर सुप्रीम कोर्ट के अंदरूनी कारणों से ही पिछले कुछ साल में सुप्रीम कोर्ट की साख प्रभावित हुई है। जस्टिस मिश्रा से पहले चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर भी अक्सर एक राजनीतिक चीफ जस्टिस जैसे प्रतीत होते रहे। सार्वजनिक मंचों पर उनकी कई टिप्पणियों और आंसू बहाने की घटनाओं से देश में अच्छा संदेश नहीं गया था।

इसी तरह, सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जोसेफ़ कुरियन द्वारा धार्मिक भावनाओं के अधीन गुड फ्राइडे की छुट्टी को मुद्दा बनाकर प्रधानमंत्री के साथ जजों की बैठक का एक तरह से बायकॉट करना भी अच्छा नहीं था। सुप्रीम कोर्ट में जजों के चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया पहले ही सवालों के घेरे में है। जजों के चयन को लोकतांत्रिक बनाये जाने से देश की इस सर्वोच्च न्यायिक संस्था की साख बेहतर हो सकती है।
आशा करता हूं कि जस्टिस गोगोई इस स्थिति को समझेंगे और अपने कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट में जनता के भरोसे को एक बार फिर से बुलंदियों पर पहुंचाएंगे। हम चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट हमारे लोकतंत्र में एक ऐसी संस्था हो, जिसके लिए हम लोगों के मन में किसी मंदिर-मस्जिद, ईश्वर-अल्लाह से भी अधिक सम्मान हो।

सुप्रीम कोर्ट की गरिमा बची रहे, इसी के लिए हमने जस्टिस दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस से असहमति जताई थी और जस्टिस मिश्रा के ख़िलाफ़ महाभियोग का भी समर्थन नहीं किया था। लेकिन किसी भी संस्था की गरिमा केवल देश के नागरिकों के व्यवहार से ही नहीं, बल्कि उस संस्था के अपने कर्ताओं-धर्ताओं के कार्यों और व्यवहारों से भी बचेगी। आशा है, सुप्रीम कोर्ट में सभी लोग हम आम नागरिकों की इस भावना को समझ सकेंगे।
मेरी राय में सुप्रीम कोर्ट का कोई भी फैसला इतना नपा-तुला होना चाहिए कि उससे न सिर्फ़ फैसला सुनाने वाले जजों में सहमति हो, बल्कि देश के आम अवाम के बीच भी असहमति की गुंजाइश कम से कम हो। सुप्रीम कोर्ट को अपना ध्येय वाक्य कभी नहीं भूलना चाहिए- || यतो धर्मस्ततो जयः ||बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की गरिमा सर्वोपरि है और इसी भावना के साथ जस्टिस गोगोई को देश की जनता की आकांक्षाओं और उम्मीदों पर खरे उतरने के लिए हमारी हार्दिक शुभकामनाएं।

(वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)