‘मुज़फ्फरपुर जैसी घटनाएं सामने आती हैं, तो अनेक बगुलों को भगत बनने का मौका मिल जाता है’

मुज़फ्फरपुर बालिका गृह की घटना के बारे में जानकारी मिली, तो बरबस ही नोएडा का निठारी कांड याद आ गया।

New Delhi, Aug 03 : भारत माता की बेटियों के सबसे बड़े ग्राहक हमारे अनेक गणमान्य नेता, पूंजीपति, बाहुबली, दबंग, रईसजादे और अन्य सूखदार लोग होते हैं। बिहार में पटना गैंग रेप से लेकर मुज़फ्फरपुर बालिका गृह मामले तक अनेक घटनाओं पर नज़र रखते हुए हमने महसूस किया कि अक्सर हम छोटे-छोटे गुनहगारों को तो पकड़ लेते हैं, लेकिन इन बड़े-बड़े गुनहगारों के बारे में हमें कभी पता तक नहीं चल पाता।
हम क्या कहना चाह रहे हैं, उसे और भी बेहतर ढंग से यूं समझें कि मुज़फ्फरपुर के मामले में बालिका गृह के संचालकगण तो फंस जाएंगे, लेकिन जिन अनेक गणमान्य लोगों ने भारत माता की मासूम बेटियों को भोगा होगा, वे साफ़ बच जाएंगे और कानून के हाथ उनके गिरेबान तक कभी पहुंच भी नहीं पाएंगे।

इसीलिए, मुज़फ्फरपुर बालिका गृह की ज्यादातर बच्चियों के साथ बलात्कार की घटना के बारे में जानकारी मिली तो दुख तो बहुत हुआ, लेकिन हैरानी बिल्कुल भी नहीं हुई। जैसा मुज़फ्फरपुर में हुआ है, वैसा बिहार ही नहीं, देश के अनेक बालिका गृहों में भी हो रहा होगा- इसकी मुझे पक्की आशंका है, क्योंकि बेटियों के सौदागर कम नहीं हैं हमारे देश में। अपनी बेटी सबको प्यारी होती है, लेकिन दूसरों की बेटियों को भोग्या समझने वाले संभ्रांत लोग बहुत बड़ी तादाद में हैं हमारे यहां।
मेरे ख्याल से किसी भी समाज में ऐसे दोगलेपन की शुरुआत होती है राजनीति के सड़ जाने से। राजनीति सड़ती है, तो व्यवस्था सड़ जाती है। व्यवस्था सड़ जाती है, तो पापी और राक्षस किस्म के लोग बेख़ौफ़ हो जाते हैं। फिर अनेक लोग डर से और अनेक लोग लोभ से इन बेखौफ पापियों और राक्षसों के बारे में जान-बूझकर भी चुप्पी साध लेते हैं या उनके साथ खड़े हो जाते हैं।

प्राचीन काल से हम भोगी राजाओं-मंत्रियों की कहानियां सुनते आ रहे हैं। जब राजा-मंत्री ही भोगी होंगे, तो देश में नैतिकता, ईमानदारी, सत्य, न्याय, सुरक्षा कहां से सुनिश्चित होगी? लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी शीर्ष से ही पतन की शुरुआत होती है और वही नीचे तक समूचे समाज में फैलता है। राजा-मंत्रियों की उन पुरानी कहानियों में बस नए लोकतांत्रिक किरदार रखकर देखिए, आपको पता चल जाएगा कि सत्ता और राजनीति का मूल चरित्र आज भी कमोबेश वही है।
आपने देखा होगा कि जब पहले राजनीतिक दल का कोई नेता या प्यादा या प्यारा-दुलारा बलात्कार के किसी मामले में फंसता है, तो दूसरे राजनीतिक दल के लोग हमलावर हो जाते हैं और जब दूसरे राजनीतिक दल का कोई नेता या प्यादा या प्यारा-दुलारा फंसता है, तो पहले राजनीतिक दल के लोग तीरंदाज़ बन जाते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि दोनों ही अपने-अपने बलात्कारियों को बचाते हैं और दूसरों के बलात्कारियों के प्रति हमलावर महज राजनीतिक लाभ उठाने के लिए दिखाई देते हैं।

ऐसा बताया जाता है कि मुज़फ्फ़रपुर बालिका गृह की मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं का मुख्य आरोपी/पापी ब्रजेश ठाकुर सभी राजनीतिक दलों का दुलारा था और बिहार के प्रायः सभी बड़े नेताओं के साथ वह तस्वीर खिंचवा चुका है। शायद इसीलिए उसके कुकर्मों पर लंबे समय तक पर्दा पड़ा रहा और जब पर्दा उघरा तो जांच शुरू होने में काफी देर हुई। और जब जांच शुरू हुई है, तो जातिवादी राजनीति ने भी ज़ोर पकड़ लिया है।
मैं हैरान हूं कि उस मुख्य आरोपी/पापी को भी जाति-विशेष का ठहराने की कोशिशें हो रही है और कुल मिलाकर राजनीतिक लाभ के लिए बिहार के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने की साजिशें रची जा रही है। इन तमाम लोगों का मूल चरित्र भी वैसा ही है, जैसा कठुआ मामले को सांप्रदायिक रंग देने वालों का था। अपराध की हर घटना को जाति और धर्म के चश्मे से देखना इस देश में लोगों की आदत बन गई है। नतीजा यह होता है कि अपराधी अपनी-अपनी जातियों और धर्मों के लोगों की सहानुभूति और संरक्षण हासिल करने में भी कामयाब हो जाते हैं।

मुज़फ्फरपुर बालिका गृह की घटना के बारे में जानकारी मिली, तो बरबस ही नोएडा का निठारी कांड याद आ गया। दोनों घटनाओं में फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि निठारी में थोक के भाव बच्चों और लड़कियों की हत्या भी हुई थी, जबकि मुज़फ्फरपुर के दरिंदे शायद थोक के भाव बलात्कार करके ही रुक गए। फिर यह भी लगा कि अगर इस घटना में भी न्याय का हाल निठारी कांड जैसा ही रहा, तो अभी कई सालों या दशकों तक दोषियों को सज़ा नहीं मिल पाएगी।
व्यवस्था और न्याय की विसंगतियों को समझना है, तो थोड़ी रोशनी निठारी कांड के ट्रायल पर भी डालते चलते हैं।

— सन 2006 में सामने आए इस कांड में 19 बच्चे-बच्चियों-लड़कियों के कंकाल बरामद हुए थे।
— कांड से जुड़े मामले सीबीआई की विशेष अदालत में चल रहे हैं।
— कुल 19 मामले शुरू हुए, जिनमें तीन में सबूतों के अभाव में चार्जशीट दाखिल नहीं हो सकी।
— पिछले 12 साल में 7 मामलों में अदालत का फैसला आया है, जिनमें सुरेंद्र कोली और मोनिंदर पंढेर नाम के दो दोषियों को फांसी की सज़ा सुनाई गई है। बाकी 9 मामलों में अभी भी सुनवाई चल रही है।
— यानी गणित का ऐकिक नियम लगाएं, तो 7 मामलों के फैसले में अगर 12 साल लगे, तो बचे हुए 9 मामलों के फैसले में 14-15 साल और लग जाएंगे।
— फिर ये सभी मामले सुप्रीम कोर्ट तक जाएंगे। मुमकिन है कि सुप्रीम कोर्ट को भी उन्हें अलग-अलग देखना पड़े। यानी ऊपरी अदालतों को भी इन सभी मामलों को निपटाने में 10-15 साल और लग जाएं तो हैरानी नहीं।
— फिर यदि फांसी की सज़ा बरकरार रहती है, तो राष्ट्रपति के पास भी दया याचिकाएं जाएंगी और उन्हें भी फैसला लेने में कुछ साल अवश्य लगेंगे।
— कुल मिलाकर, निठारी जैसे नृशंस नरसंहार के बाद भी दोषियों को सज़ा मिलने में 30-40 साल लग सकते हैं, जिनमें 12 साल बीत चुके हैं।
— शायद तब तक दोषी अपनी स्वाभाविक मौत मर जाएं और न्याय उन्हें वह सज़ा दे ही न पाए, जो उसने तय की है या तय करने वाला है।
— यह हाल उस सीबीआई की जांच और न्याय व्यवस्था का है, जिस पर देश के लोग इतना भरोसा करते हैं कि हर घटना के बाद मांग करते हैं कि जांच सीबीआई को सौपी जानी चाहिए।

इस मामले का जिक्र हमने इसलिए किया है, क्योंकि हमारी न्यायिक व्यवस्था की एक बहुत बड़ी विसंगति इसके माध्यम से सामने आती है। वह यह कि अगर कोई अपराधी एक व्यक्ति की हत्या करे, तो उसे अपेक्षाकृत जल्दी सज़ा हो सकती है, क्योंकि उसके ख़िलाफ़ केवल एक मामला चलेगा। लेकिन अगर वह 19 मौकों पर 19 व्यक्तियों की हत्या करे, तो उसे सज़ा मिलने में इतनी देर हो सकती है कि न्याय का इंतज़ार करती आंखें भी पथरा जाएं, क्योंकि उसके ख़िलाफ़ 19 मामले चलाने पड़ेंगे।
ना जाने अब मुज़फ्फरपुर मामले की जांच सीबीआई किस तरह से करेगी!

— क्या वह हर बालिका से बलात्कार के अलग-अलग मामले बनाएगी, जैसे निठारी कांड में हर हत्या के लिए अलग-अलग मामले चलाए गए और इंसाफ़ को लेट किया गया?
— जैसे निठारी कांड में केवल दो कमज़ोर प्यादे सुरेंद्र कोली और मोनिंदर पंढेर फंस गए और उन अनेक रसूखदार लोगों के नाम तक सामने न आ सके, जो मोनिंदर पंढेर की कोठी पर उन मासूम बच्चों और लड़कियों को भोगने के लिए जाते होंगे, क्या वैसे ही मुज़फ्फरपुर कांड में भी सिर्फ़ बालिका गृह के संचालक फंस जाएंगे और भारत माता की मासूम बेटियों को भोगने वाले अन्य रसूखदार लोग बचा लिए जाएंगे?
— त्वरित जांच करके न्याय-प्रक्रिया को पूरा किया जाएगा, या फिर निठारी कांड की ही तरह इसमें भी दोषियों को सज़ा मिलने में सालों या फिर दशकों लग जाएंगे?

दरअसल, हम, हमारा समाज, हमारी व्यवस्था- सबके सब अपनी संवेदना धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं। सुधार और संरक्षण के नाम पर छोटी-छोटी बच्चियों के साथ ऐसा हो सकता है, यह सोच से भी परे है, लेकिन ऐसा हुआ है और अनेक जगहों पर हो रहा है, यह एक हकीकत है। आज एनजीओ के नाम पर अधिकांशतः गोरखधंधे ही चल रहे हैं। राजनीति, समाजसेवा, ब्यूरोक्रेसी, पुलिस, न्यायालय, मीडिया, कला – हर कुएं में भांग पड़ी है।

बहरहाल, बिहार से हर साल बड़ी संख्या में बेटियों की तस्करी भी हो रही है, लेकिन ये सारी बेटियां पुलिस फाइलों में महज गुमशुदा के तौर पर दर्ज होकर रह जाती हैं। मुज़फ्फरपुर जैसी घटनाएं सामने आती हैं, तो अनेक बगुलों को भगत बनने का मौका मिल जाता है। हमें पता है कि ये सफेद बगुले ही हमारे नेता, भाग्यविधाता और व्यवस्था के संचालक हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)