‘राहुल गांधी जिस पार्टी के अध्यक्ष हैं, एक घोटाला-प्रधान पार्टी होने के चलते उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध है’

जो राहुल गांधी आरोप लगा रहे हैं, ख़ुद उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है, क्योंकि वे स्वयं घोटाले के एक मामले में ज़मानत पर बाहर हैं और सत्ता-प्राप्ति के लिए जल-बिन मछली की तरह छटपटा रहे हैं।

New Delhi, Sep 25 : रफाएल मामले पर अनेक मित्र कई दिनों से टिप्पणी की मांग कर रहे हैं, लेकिन इस मुद्दे पर किसी के पक्ष-विपक्ष में बोलने का मेरा मन हो नहीं पा रहा, क्योंकि एक तो सरकार को छोड़कर किसी के भी पास इस मामले से जुड़े सही तथ्य नहीं हैं, दूसरे इस विवाद से जुड़े सारे किरदार संदिग्ध ही नहीं, परम-संदिग्ध हैं।
1. जो राहुल गांधी आरोप लगा रहे हैं, ख़ुद उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है, क्योंकि वे स्वयं घोटाले के एक मामले में ज़मानत पर बाहर हैं और सत्ता-प्राप्ति के लिए जल-बिन मछली की तरह छटपटा रहे हैं, इस हद तक कि जीवन में पहली बार जनेऊधारी, शिवभक्त, मंदिर-मंदिर दर्शनार्थी और मत्थाटेकू भगत पता नहीं क्या-क्या बन चुके हैं।

2. राहुल गांधी जिस पार्टी के अध्यक्ष हैं, एक घोटाला-प्रधान पार्टी होने के चलते उसकी विश्वसनीयता तो और भी संदिग्ध है। जिस पार्टी को सांस ही घोटालों से मिलती हो और जिसने आज़ाद भारत के इतिहास में सैकड़ों नहीं, हज़ारों या कहें असंख्य या अनगिनत घोटाले किए होंगे, उस पर यदि विश्वास करना भी चाहें तो कैसे करें?
3. फ्रांस के जिन पूर्व राष्ट्रपति ओलांद जी के कथित बयान पर विपक्षी पार्टियां ओले बरसाए जा रही हैं, खुद उनकी विश्वसनीयता भी कम संदिग्ध नहीं है, क्योंकि स्वयं उनकी गर्लफ्रैंड की फिल्म में अनिल अंबानी की कंपनी का पैसा लग चुका है, यानी प्रकारांतर से वे अंबानी की घूस खा चुके हैं। मुमकिन है कि घूस खाने के बाद ख़ुद उन्होंने ही रफाएल डील में अंबानी को शामिल कराया हो और जब गर्दन फंसी, तो अपना पाप भारत सरकार के मत्थे मढ़ दिया हो।

4. सरकार की बातों में भी विश्वसनीयता आ नहीं पा रही, क्योंकि चाहे उसकी सिफारिश पर अथवा बिना उसकी सिफारिश के रफाएल डील में विमान सप्लाई करने वाली कंपनी दसॉल्ट एविएशन के ऑफसेट पार्टनर के तौर पर अंबानी जी घुस चुके हैं।
5. जहां तक आदरणीय अंबानी जी का सवाल है, तो वे होंगे बहुत बड़े बिजनेसमैन, लेकिन देश की जनता की नज़र में विश्वसनीयता तो उनकी भी संदिग्ध ही है। अब पब्लिक चाहे धारणावश उनपर विश्वास न करती हो, लेकिन नहीं करती तो नहीं करती। अब जनता को राष्ट्रवाद का चाहे जितना भी डोज़ क्यों न पिलाया जाए, अंबानीज़ के प्रति उनके इस अविश्वास को विश्वास में नहीं बदला जा सकता। उस पर भी तब, जबकि अंबानियों में भी अनिल अंबानी एक सुपर फ़्लॉप उद्योगपति हैं- 40 हज़ार करोड़ से अधिक के कर्ज़े वाले एक ऐसे उद्योगपति, जिनकी सारी कंपनियों के शेयर उस दौर में भी रसातल चाट रहे हैं, जबकि सेंसेक्स 20 हज़ार से बढ़ते-बढ़ते 36 हज़ार के पार जा चुका है।

अब जबकि इस पूरे विवाद में सारे ही प्लेयर्स अविश्वसनीय हैं, तो सोचने की बात है कि केवल मोदी जी की ईमानदारी की दुहाई देकर जनता में विश्वास पैदा करना क्या इतना आसान है?
यह भी सोचना चाहिए कि चौकीदार चाहे कितना भी ईमानदार क्यों न हो, लेकिन अगर कोई चोर-छवि व्यक्ति उसका लंगोटिया यार हो, तो लोगों को सवाल उठाने का मौका तो मिलेगा ही, चाहे सवाल उठाने वाले सारे भी चोर-छवि ही क्यों न हों!
सार यह है कि रफाएल डील को लेकर लोगों के मन में संदेह पैदा हो चुका है। अब इसे केवल राजनीतिक बयानबाज़ियों के ज़रिए अथवा सोशल मीडिया पर कैम्पेन चलाकर दूर नहीं किया जा सकता।
सरकार को फ़ायदा केवल इस बात का मिल रहा है कि चोर-चोर चिल्लाने वाले सारे लोग खुद भी जनता की नज़र में चोर-छवि ही हैं। अगर ये साफ़-सुथरे लोग होते, तो पब्लिक निश्चित ही रफ़ाएल की राइफ़ल सरकार की ओर तान देती और पूछती कि सच-सच बता, माजरा क्या है? धन्यवाद।

(वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)