आखिर क्यों कांग्रेस हमेशा “शहरी नक्सलियों” के साथ खड़ी हो जाती है ?

जब “परनाना” नेहरू इतने बड़े कम्युनिस्ट थे तो उनके नाती-पोतों की कांग्रेस इन वामपंथी विचारधारा से पैदा होने वाले “शहरी नक्सलियों” के खिलाफ कैसे बोलेगी ?

New Delhi, Aug 30 : देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप में “शहरी नक्सलियों” की गिरफ्तारी हुई और कांग्रेस ने इसे लोकतंत्र के लिए खतरा बता दिया। फासीवाद… फासीवाद… फासीवाद… के नारे गूंजने लगे। आखिर क्यों कांग्रेस हमेशा “शहरी नक्सलियों” के साथ खड़ी हो जाती है ? दरअसल मेरी नज़र में हर कठिन सवाल का उत्तर इतिहास में छुपा होता है, और इतिहास कभी झूठ नहीं बोलता।  “शहरी नक्सलियों” और कांग्रेस की इस दोस्ती का राज़ छुपा हुआ है 1926 की “दत्त-बैडले थ्योरी” में… जिसे दो विदेशी कम्युनिस्टों ने भारत को कम्युनिस्ट देश बनाने के लिए तैयार किया था।

दरअसल 1919 में लेनिन ने सोवियत संघ की तर्ज पर पूरे विश्व में वामपंथी सरकारें बनाने के लिए एक कम्युनिस्ट इंटरनेशनल नाम से संगठन तैयार किया था, “कॉमिन्टर्न” नाम से जाने वाले इसके सदस्यों को इस बात की ट्रेनिंग दी जाती थी कि वो दुनिया के बाकी देशों में कम्युनिस्ट सरकार बनाने में योगदान दें, और इन्ही में से थे रजनी पाम दत्त (ब्रिटिश नागरिक जो भारतीय डॉक्टर और स्वीडिश मां की संतान थे) और ब्रिटिश कम्युनिस्ट बेन ब्रैडले जिन्हे 1920 के दशक में भारत में वामपंथी आंदोलन की जड़े जमाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इन दोनों ने तत्तकालीन भारतीय राजनीति का लंबा अध्यन करने के बाद एक प्लान तैयार किया जिसे “दत्त-बैडले थ्योरी” के नाम से जाना जाता है।

दरअसल “दत्त-बैडले थ्योरी” के तहत पूरा प्लान ये था कि अगर अंग्रेज़ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर बैन लगाते हैं तो इसके सदस्य कांग्रेस में शामिल हो जाएं… ना केवल शामिल हो जाएं बल्कि वो कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपने विचारों से प्रभावित करें… ना केवल प्रभावित करें बल्कि अपने जैसा बना लें… और हुआ भी ऐसा ही… “पेशावर षड़यंत्र” के बाद जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर अंग्रेजों सरकार की सख्ती बढ़ गई तो “कॉमिन्टर्न” कहे जाने वाले इसके सदस्य कांग्रेस में शामिल होने लगे।
“कॉमिन्टर्न” कहे जाने वाले इन लोगों ने सबसे पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू को अपने पाले में लिया… नेहरू को “कॉमिन्टर्न” ने अपने सम्मेलन का अध्यक्ष बनाया… यहां तक कि उन्हे नवंबर 1927 में सोवियत संघ की यात्रा के लिए आमंत्रित किया गया… 1929 में नेहरू ने एक किताब लिखी जिसका नाम था “सोवियत रशिया”… इस किताब में नेहरू लिखते हैं कि “हिंदुस्तान के कारखानों में मजदूरी करने से बेहतर सोवियत संघ की जेल में कैद रहना है”… ध्यान दीजिएगा, ये वो दौर था जब सोवितय संघ पर क्रूर तानाशाह स्टालिन का शासन था… वो स्टालिन जिसकी जेलों को दुनिया जीवित नर्क कहती थी… वो स्टालिन जिसके हाथ अपने ही देश के 50 लाख लोगों के खून से सने थे।

खैर, अपनी इस यात्रा के बाद नेहरू पर वामपंथ का ऐसा जादू छाया कि वो ताउम्र कन्युनिस्ट रोमांस के शिकार रहे… ये जानते हुए भी कि इन्ही लोगों ने आज़ादी के ठीक बाद नेहरू सरकार के तख्ता पलट की कोशिश की थी… (इस दिलचस्प विषय पर फिर कभी लिखूंगा)… यहां तक कि 1962 का चीन युद्ध के बाद नेहरू का ये वामपंथी रोमांस कुछ कम नहीं हुआ… क्योंकि अगले दो सालों में जब तक वो जीवित रहे उन्होने वामपंथियों की साम्राज्यवादी नीतियों के बारे में काफी खुल कर नहीं कहा… यही वजह है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक और बहुत बड़े वामपंथी विचारक फिलिप स्प्रैट ने कहा था कि “मैं जितना समझता था, नेहरू उससे भी बड़े कम्युनिस्ट थे”…
अब जब “परनाना” नेहरू इतने बड़े कम्युनिस्ट थे तो उनके नाती-पोतों की कांग्रेस इन वामपंथी विचारधारा से पैदा होने वाले “शहरी नक्सलियों” के खिलाफ कैसे बोलेगी ?

(वरिष्ठ पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)