`संजू’ संजय दत्त की जिंदगी की खुली किताब नहीं बल्कि कुछ दागदार पन्नों का पुनर्लेखन भर है

संजय दत्त को अदालत ने सजा दी और वे ईमानदारी से अपनी पूरी सजा काटकर बाहर आ चुके हैं। इस नाते उनके प्रति किसी तरह की कोई नफरत कम से कम मैं नहीं रखना चाहता।

New Delhi, Jul 12 : संजू नॉन लीनियर पैटर्न पर रची गई कहानी है। फ्लैश बैक में डूबती उतराती फिल्म के बीच मैं भी यादों के एक अलग गलियारे में दाखिल हो गया। बात उस वक्त की है, जब कई तरह की दुश्वारियां झेलने के बाद संजय दत्त ने मुन्नाभाई के ज़रिये सिल्वर स्क्रीन पर जबरदस्त कमबैक किया था।
तब मैं आजतक न्यूज़ चैनल में हुआ करता था। हमारे मुंबई ब्यूरो ने संजय दत्त के टैटू पर एक स्टोरी शूट करके भेजी। सीने पर गुदवाये गये अपने पिता का नाम दिखाते वक्त संजय की आंखें छलक आई थी लेकिन फुटेज देखते हुए मुझे पल भर के लिए झटका लगा था। हिंदी में मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था- सुनिल। जी हां सुनील नहीं बल्कि सुनिल

पिता के जाने के बाद सीने पर उनका नाम लिखवाया तो वो भी गलत छप गया। `सुनिल’ वाला यही टैटू फिल्म संजू में रणबीर कपूर की छाती पर नज़र आया तो मुझे लगा कि वाकई संजय दत्त की जिंदगी अजीबो-गरीब विचित्रताओं का योग है। कुछ तकदीर ने लिखा और बाकी उन्होने खुद अपने हाथो लिखा `सुनिल’ की तरह।
फिल्म अभी बनी है। लेकिन सिनेमा में रुचि रखने वालों को इस बात एहसास हमेशा से रहा है कि संजय दत्त की निजी जिंदगी किसी भी फिल्मी कहानी से ज्यादा नाटकीय है। ब्लॉक बस्टर के सारे एलिमेंट इसमें मौजूद हैं। कितना बड़ा संयोग है कि जिस वक्त संजय दत्त की फिल्म खलनायक रीलीज़ हो रही थी, ठीक उसी दौरान अंडरवर्ल्ड के साथ रिश्तों के इल्जाम में गिरफ्तार किया गया था।उस फिल्म के टाइटिल सांग के बोल थे— नायक नहीं खलनायक हूं मैं।

कहानी हरेक शख्स की होती हैं। अच्छे लोगो की भी और बुरे लोगो की भी। बुरे लोगो में अच्छाइयां होती है और अच्छे लोग भी बुरे होते हैं। लेकिन संजू किसी एंटी हीरो की कहानी नहीं है। यह उनके नायकत्व को स्थापित करने की कहानी है। एक नायक जो अपनी करनी के लिए खुद जिम्मेदार नहीं है। दिल से एकदम हीरा है लेकिन हालात, जज्बात और संगत ने उसे बिगाड़ दिया है।
बचपन से लेकर बुढ़ापे तक संजय की जिंदगी का कोई ऐसा दौर नहीं है, जिसमें फिल्मी उतार-चढ़ाव ना हो। लेकिन उनके दोस्त राजू हिरानी ने सिर्फ दो पहलू चुने। पहला कैसे ड्रग के नशे से फंसा एक अपकमिंग स्टार पिता के आशीर्वाद, दोस्त के प्यार और अपने विल पावर के दम पर इस दलदल से बाहर आया।

दूसरा हिस्सा पिता की सुरक्षा लिए चिंतित स्टार बेटा कैसे अपने घर में एक अदद ए.के. छप्पन और ढेर सारा कारतूस ले आया और बाद में उसे किसी तरह फिकवाया। लेकिन इस चक्कर में टाडा में फंस गया। दोनो ही ट्रेजेडी के लिए हालात जिम्मेदार लेकिन सॉलिड संजू ने डेस्टेनी का भी गेम बजा डाला और हर मुश्किल की वाट लगाके एकदम विक्टोरियस के माफिक बाहर आ गया। राजकुमार हिरानी ने संजू शुद्धिकरण महायज्ञ में अपने मुन्ना के लिए सर्किट की भूमिका निभाई। ऐसी जादू की झप्पी दी कि भाई ही नहीं बल्कि देखने वाले भी सेंटी हो गये।
थोड़ा सीरियस नोट पर बात करें तो मेरा विषय संजय दत्त से कहीं ज्यादा उन पर बनी फिल्म हैं। संजय दत्त को अदालत ने सजा दी और वे ईमानदारी से अपनी पूरी सजा काटकर बाहर आ चुके हैं। इस नाते उनके प्रति किसी तरह की कोई नफरत कम से कम मैं नहीं रखना चाहता। लेकिन उनका नायकत्व स्थापित करने के चक्कर में राजकुमार हिरानी ने यह साबित कर दिया कि भारत में अच्छे बायोपिक नहीं बन सकते, खासकर उस स्थिति में जहां कहानी का मुख्य किरदार खुद उस प्रोजेक्ट में रुचि ले रहा हो।

सत्यजित रे सिनेमा को सबसे आला दर्जे का कॉमर्शियल आर्ट कहा था। फिल्म में क्या बिक सकता है, यह राजकुमार हिरानी जानते थे। उन्हे पता था कि 300 लड़कियों के साथ सोना नायकत्व पर दाग नहीं लगाएगा क्योंकि अर्बन मेल ऑडियंस के लिए यह एक लुभावनी चीज़ होगा। लेकिन यह बताना ज़रूर मुश्किल है कि आखिर संजय दत्त अपने ढेर सारे पुराने रिश्ते या शादियां क्यों नहीं संभाल पाये। कैंसर से मरने वाली उनकी पहली पत्नी ऋचा शर्मा और टाडा केस के दौरान साये की तरह उनके साथ रहने वाली उनकी गर्ल फ्रेंड और बाद में दूसरी पत्नी बनी रेया पिल्लई का फिल्म में कहीं कोई जिक्र नहीं है।
संजय और मान्यता की शादी की कहानी बहुत नाटकीय है। लेकिन मान्यता की एंट्री एक आदर्श भारतीय पत्नी की तरह होती है और पुराना सबकुछ गायब है। कुल मिलाकर `संजू’ उनकी जिंदगी की खुली किताब नहीं बल्कि कुछ दागदार पन्नों का पुनर्लेखन भर है। संजय दत्त के पास अब खोने को कुछ नहीं है। अगर उन्होने थोड़ी सी हिम्मत दिखाई होती तो सिल्वर स्क्रीन पर रची गई उनकी यह कहानी अमर हो सकती थी।

लेकिन अगर संजय जीवन की जटिलताओं को समझने वाली शख्सित होते भी फिर उनकी जिंदगी में यह सब क्यों होता जो हुआ। अंडरवर्ल्ड के साथ कनेक्शन और अवैध हथियार की खबर ब्रेक करने वाले द डेली के पत्रकार बलजीत परमार ने जेल में संजय से बीसियों बार मुलाकत की। बलजीत का कहना है कि मुझे उनसे बातचीत करते वक्त हमेशा महसूस हुआ कि उनकी मानसिक उम्र असली उम्र से बहुत कम है। उनमें अजीब तरह की मासूमियत है और ऐसे लोग गलतियां दोहराने को अभिशप्त होते हैं।
बड़ा कैनवास, भारी-भरकम बजट, उम्दा शूट अच्छे लोकेशन ये सब कुछ अपेक्षित था। इसमें कोई नहीं बात नहीं। फिल्म कमाई के सारे रिकॉर्ड़ तोड़ रही है और तोड़ती रहेगी। लेकिन बतौर निर्देशक मुझे कई जगहों पर राजकुमार हिरानी और उनके लेखक अभिजात जोशी अपनी सीमाओं में फंसते दिखाई दिये।
पीके देखते वक्त भी मुझे लग रहा था कि हिरानी कई जगहों पर अपने टेंप्लेंट को दोहरा रहे हैं। इस फिल्म में भी कुछ ऐसा ही लगा। बाप-बेटे का भावपूर्ण रिश्ता हर फिल्म में एक जैसा। फोन पर, एफएम पर या टीवी डिबेट में इमोशनल ड्रामा कई फिल्मों में एक जैसा। हीरोइन से शादी करने आया एनआरआई दूल्हा चाहे थ्री इडियट्स हो या संजू लगभग एक जैसा। मंडप से लड़की का उठकर भाग जाना चाहे थ्री इडियट्स हो, लगे रहो मुन्नाभाई या संजू कमोबेश एक जैसा। एक क्रियेटिव व्यक्ति होने के नाते हिरानी के लिए थोड़ा सोचने की ज़रूरत है। लेकिन मल्टी करोड़ क्लब शायद उन्हे ऐसा करने नहीं देगा।

(वरिष्ठ पत्रकार राकेश कायस्थ के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)