विपक्षी एकता का एक और कदम, मोदी को घेरने की कोशिश

केंद्र सरकार यह कहती रही है कि वह पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें नहीं घटाएगी क्योंकि उन पैसों से जनहित की कई योजनाएं चल रही हैं। 

New Delhi, Sep 17 : गत 10 सितंबर का ‘भारत बंद’ कितना सफल रहा, इस बात पर भले विवाद हो, पर इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि इस अवसर पर प्रतिपक्ष ने अपनी एकजुटता दिखा दी।
कांग्रेस और वाम दलों द्वारा आयोजित ‘भारत बंद’ पेट्रोल -डीजल के दाम कम करा पाएगा या नहीं,यह तो पता नहीं। पर ‘बंद’ अगले लोक सभा चुनाव में संभावित विपक्षी एकता की पूर्व पीठिका का काम जरूर कर गया।

याद रहे कि केंद्र सरकार यह कहती रही है कि वह पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें नहीं घटाएगी क्योंकि उन पैसों से जनहित की कई योजनाएं चल रही हैं। उन्हें जारी रखना व्यापक जनहित में है।
यदि बीच में दाम घटाने का निर्णय नहीं हुआ तो अगले चुनाव में इस मुद्दे पर वोट के जरिए जनता अपनी राय प्रकट करेगी । वह अपने मतों के जरिए इस सवाल का जवाब देगी। यानी सस्ते पेट्रोलियम पदार्थ उसके लिए अधिक जरूरी हैं या विकास व कल्याण की वे योजनाएं जिनकी चर्चा केंद्र सरकार कर रही है। वैसे भी साठ-सत्तर के दशकों के विपरीत आज के प्रतिपक्षी दलों को जन आंदोलनों में कोई खास रूचि नहीं रही है। राजनीति का स्वरूप ही बदल गया है। ड्राइंग रूम राजनीति, जातीय जोड़तोड़, दलीय गठजोड़ और पैसों की भरमार। मुख्य तत्व यही बन गए हैं।

ऐसे में कुछ घंटों का ‘भारत बंद’ ही सही। यह अच्छी पहल रही। सड़कों पर आने का अभ्यास तो नेताओं में रहेगा ! ‘भारत बंद’ सर्वाधिक सफल बिहार में ही रहा। इसका मुख्य कारण यह है कि राजद जैसा दबंग दल मुख्य भूमिका में था। यदि कोई खुशी से दुकान-वाहन बंद करने को तैयार नहीं होता तो राजद वैसे लोगों के साथ बल प्रयोग के लिए भी जाना जाता है। कुछ अन्य दल भी ऐसे ही हैं। पर राजद तो बेजोड़ है। इस बार भी वही हुआ। वैसे जैसे ही दुकानदारों को पता चल जाता है कि राजद का बंद है तो उनमें से अधिकतर ‘खुशी- खुशी’ सहयोग कर देते हैं। क्या करेंगे ? मजबूरी जो है। इन दिनों राजद के कार्यकत्र्ता बंद के दिन कहीं जोर- जबर्दस्ती करते भी हैं तो प्रशासन-पुलिस के लोग उन्हें रोकने में कोई खास कड़ाई नहीं करते।

कहते हैं कि बिहार के कुछ सत्ताधारी नेता ऐसा ही चाहते हैं ताकि राज्य के लोगों को नब्बे के दशक की याद ताजा हो जाए। वैसे बिहार में राजद एक राजनीतिक ताकत भी है। 243 सदस्यों की विधान सभा में राजद के करीब 80 विधायक हैं। लालू परिवार की कानूनी परेशानियों के कारण राजद के नेता व कार्यकत्र्ता केंद्र व राज्य सरकार के खिलाफ गुस्से से भरे हुए हैं। ऐसे में बंद को तो सफल होना ही था।
पर भाजपा नेता और राज्य के उप मुख्य मंत्री सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि हमारे पास यानी राजग के पास बिहार में 65 प्रतिशत वोट है। दूसरी ओर विपक्षी दलों के पास सिर्फ 35 प्रतिशत। जनता बंद के साथ नहीं थी, इसलिए उन लोगों ने मोदी के अनुसार तोड़फोड़ व हिंसा का सहारा लिया।

खैर यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि सुशील मोदी केे दावे में कितना दम है। वैसे बिहार में गत मार्च में हुए उपचुनाव के नतीजे महागठबंधन के लिए कोई उम्मीद नहीं जगाते। पर बंद के बहाने राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिपक्षी एकजुटता की ठोस शुरूआत तो हो गयी। कांग्रेस के नेतृत्व में विरोधी दलों ने बंद का आहवान किया था।कांग्रेस अब यह उम्मीद कर रही है कि कांग्रेस के नेतृत्व में उन 20 दलों का महा गठबंधन एकजुट रहेगा जिन दलों ने मिलजुल कर बंद कराया। बंद में शामिल रहे दलों के नाम हैं – कांग्रेस, राजद, माकपा, एन.सी.पी., सपा, एआईडीयूएफ, भाकपा, झामुमो, ई यू एम एल, एन.सी., जेडीएस, आर.एस.पी.,रालोद, बसपा, द्रमुक, लोजद, मनसे, हम, केरल कांग्रेस, फारवर्ड ब्लाॅक और एमडीएमके। बंद के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि ‘पूरा विपक्ष मिलकर भाजपा को परास्त कर देगा। ’ऐसा होना असंभव भी नहीं । शायद राहुल जी की इच्छा पूरी हो जाए। लोकतंत्र में तो कुछ भी संभव है। हालांकि ‘भारत बंद’ की उपलब्धि से फिलहाल ऐसा संकेत नहीं मिलता।
क्योंकि मिली जानकारी के अनुसार भारत बंद का ध्यान खींचू असर सिर्फ नौ राज्यों में ही रहा ।
ये राज्य हैं बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, छत्तीस गढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलांगना और कर्नाटका।

महा गठबंधन के लिए यह खुशी की बात है कि ये बड़े राज्य हैं और इन राज्यों से काफी सांसद चुने जाते हैं। जहां बंद का सर्वाधिक असर रहा, उस बिहार में गत मार्च में आठ विधान सभा सेगमेंट में वोट पड़े थे। उनमें से पांच में राजग की जीत हुई थी। मार्च के बाद बिहार की राजनीतिक स्थिति नहीं बदली है।हां, यदि बिहार का कोई क्षेत्रीय दल इस बीच राजग का साथ छोड़ दे तो राजग के लिए दिक्कत आ जाएगी। महागठबंधन की बिहार से बेहतर स्थिति तो झारखंड में नजर आ रही है जहां गैर राजग दल एकजुट हो रहे हैं। बंद ने शायद उन्हें प्रेरित किया है। हां, बाद के महीनों में यदि उनके पक्ष में कुछ अन्य सकारात्मक संकेत मिलें तो राहुल गांधी की सदिच्छा पूरी हो सकती है।

भारत बंद एक ऐसा अवसर साबित हुआ जब कांग्रेस को ऐसे दलों का साफ पता चल गया जो उनके साथ हर हालत में साथ देने को तैयार नहीं हैं। वे दल बंद के अवसर पर कांग्रेस के साथ नहीं थे।
वे दल हैं टीडीपी, अन्ना द्रमुक, तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल, टीआरएस, वाईएसआरसी और आम आदमी पार्टी। अगले लोक सभा चुनाव से पहले कांग्रेस का इन दलों से कैसा रिश्ता बनेगा, यह देखना दिलचस्प होगा। वैसे पेट्रोल की कीमत बढ़ने से वैसे लोगों में भी फिलहाल नाराजगी है जो
पब्लिक ओपिनियन प्रभावित करते हैं। इसलिए नरेंद्र मोदी के कई प्रशंसकों ने भी यह कहा कि इस पर सरकार को तुरंत ध्यान देना चाहिए। क्योंकि कभी -कभी छोटी -छोटी बातों से प्रभावित होकर भी अनेक मतदाता ज्यादा अच्छी सरकार को हरा देते हैं और कम अच्छी सरकार बनवा देते हैं।
1998 में दिल्ली में वही हुआ था। तब भाजपा की सुषमा स्वराज मुख्य मंत्री थीं। तब दिल्ली विधान सभा चुनाव में प्याज की बढ़ती कीमत ने भाजपा को हरवा दिया।कांग्रेस की शीला दीक्षित मुख्य मंत्री बन गयीं।

अभी पेट्रोल की कीमत मुद्दा बना हुआ है। लोगबाग मन मोहन सिंह सरकार के कार्य काल की मूल्य वृद्धि को याद करने के मूड में नहीं हैं। 2009 से 2014 के बीच के पांच साल में दिल्ली में पेट्रोल का दाम 19 रुपए बढ़ गया था। जबकि 2014 से 2018 के बीच 11 रुपए ही बढ़े। समय के साथ कीमतें तो बढ़नी ही हैं। पर पुरानी बातें लोग कई बार भूल जाते हैं। क्योंकि जब जूता काटेगा, तभी कष्ट याद आएगा। अब देखना है कि नरेंद्र मोदी सरकार इस कष्ट का हरण करके अपना राजनीतिक भविष्य बनाती है या वर्षों बाद के किसी अदृश्य फायदे के नाम पर पेट्रोल पर टैक्स वसूलती जाती है। यदि सरकार ने टैक्स कम करके पेट्रोल का दाम घटाया तो उसका श्रेय ‘भारत बंद’ को तो मिलेगा ही।

(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)