‘बिना बसपा के सपा-कांग्रेस मोदी का रथ नहीं रोक पाएंगे, मायावती ‘मोटी कीमत’ वसूलने में जुटी है’

बसपा को साथ लिए बिना उत्तर प्रदेश में भाजपा को हराना मुश्किल है। ऐसे में यदि बसपा कांग्रेस से इसकी कीमत मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीस गढ़ में वसूलना चाहती थी तो यह स्वाभाविक ही है।

New Delhi, Oct 08 : बसपा प्रमुख मायावती एक बार फिर सुर्खियों में हैं। बसपा के साथ गठबंधन की आस लगाए बैठी कांग्रेस की उम्मीदों पर उन्होंने पहले छत्तीस गढ़ और फिर मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी पानी फेर दिया। इसने आगामी चुनाव से पहले चर्चा में आ रहे विपक्षी गठबंधन को लेकर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। आगामी विधान सभा चुनावों में उनकी ‘एकल चलो रे’ वाली नीति और कांग्रेस पर हमलावर रुख से मुझे उनके राजनीतिक गुरु कांशी राम की याद आ गई। बसपा सुप्रीमो कांशी राम ने 1987 में कहा था कि ‘मैंने आर.पी.आई.से नाता इसलिए तोड़ लिया क्योंकि वह पार्टी अन्य दलों से सौदेबाजी के बजाय भीख सी मांगती थी।’

मीडिया से बातचीत में उन्होंने ‘बारगेन’ और ‘बेगिंग’ शब्द का इस्तेमाल किया था। असल में 1971 के लोक सभा चुनाव में आर.पी.आई. ने कांग्रेस से सीटों का तालमेल तो किया,लेकिन उसे सिर्फ एक सीट मिली जबकि कांग्रेस ने 520 सीट सीटों पर चुनाव लड़ा। ‘ जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी भागीदारी’ की रणनीति में विश्वास करने वाले कांशी राम ने यह भी कहा था ‘हमारा लक्ष्य देश पर शासन करने का है।’ लगता है कि कांशी राम की उत्तराधिकारी मायावती ने अगले चुनावों में इस फार्मूले के ठोस इस्तेमाल का निर्णय कर लिया है। उनके लिए अवसर अच्छा है। हालाकि पुराने उदाहरण बताते हैं कि मायावती ऐसी रणनीति अपनाती आई हैं।

इसीलिए इस 16 सितंबर को ही उन्होंने साफ कर दिया था कि ‘सम्मानजनक सीटें मिलने पर ही बसपा गठबंधन का हिस्सा बनेगी,वरना वह अकेले ही चुनाव लड़ना बेहतर समझती है।’ हाल में कांग्रेस के साथ गठबंधन पर टूटी बात के बारे में यही माना जा रहा है कि मायावती जितनी सीटें मांग रही थीं,कांग्रेस के लिए उतनी सीटें देना संभव नहीं था।इसी वजह से प्रस्तावित महा गठबंधन आकार लेने से पहले ही धराशायी हो सकता है। जहां तक बसपा की बात है तो कांशी राम को जब भी लगा था कि अकेले चुनाव लड़ने से पार्टी का विस्तार होगा तो वे यही रणनीति अपनाते। आगामी विधान सभा चुनाव और उसके तुरंत बाद अगले साल का लोक सभा चुनाव विस्तार की संभावनाओं के लिहाज से बसपा के लिए बढि़या अवसर हैं। इसीलिए पार्टी समझती है कि उसे कड़ाई से राजनीतिक सौदेबाजी की जरूरत है।

उत्तर प्रदेश में बसपा की मदद के बिना कांग्रेस -सपा गठबंधन भाजपा को पराजित कर नहीं कर सकता। ऐसे में उसकी कीमत बसपा यदि अभी मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीस गढ़ में वसूलना चाहती थी तो यह स्वाभाविक ही है। बसपा ऐसी सौदेबाजी के लिए जानी जाती रही है। मायावती ने यह भी साफ कर दिया है कि सिर्फ बहन और बुआ कहने भर से काम नहीं चलेगा। दूसरी ओर कांग्रेस की अपनी मुश्किलें हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीस गढ़ में उसके पास बसपा को इतनी सीटें देने की गंजाइश नही थी कि चुनाव बाद सरकार बनाने के लिए वह बसपा पर निर्भर रहे। वहीं कुछ कांग्रेसी नेताओं को यह भी भरोसा हो चला है कि वे अपने दम पर भी बढि़या प्रदर्शन कर सकते हैं।

राजस्थान में कुछ हद तक ऐसी तस्वीर दिखती है ,लेकिन मध्य प्रदेश और छत्तीस गढ़ की स्थिति अलग है जहां बसपा का साथ कांग्रेस का काम आसान करता। दूसरी ओर, यदि मायावती ‘मजबूर सरकार’ नहीं बनवाएंगी तो उन राज्यों सहित पूरे देश में बसपा के विस्तार का उनका व कांशी राम का सपना अधूरा ही रह जाएगा। क्योंकि अपने दम पर बहुमत से मजबूत हुई कांग्रेस सरकार बसपा को अधिक भाव नहीं देगी। हालाकि सपा नेता अखिलेश यादव ने ‘कांग्रेस को बड़ा दिल दिखाने यानी बसपा के लिए ज्यादा सीटें छोड़ने की सलाह जरूर दी, जो शायद कांग्रेस को उतनी रास नहीं आई। वैसे इन तीन राज्यों में अपने लिए ज्यादा सीटें मांगने की मायावती की मांग एकदम निराधार भी नहीं है।
इन राज्यों में बसपा का थोड़ा -बहुत जनाधार पहले से भी रहा है। मध्य प्रदेश में तो बसपा को 1993 के चुनाव में विधान सभा की 11 सीटें मिल गयी थीं।

अब भी वहां बसपा के चार विधायक हैं और 6 दशमलव 42 प्रतिशत वोट की हिस्सेदारी भी ।
राजस्थान में बसपा को गत चुनाव में 3 दशमलव 4 प्रतिशत मत मिले थे और 2 सीटें।छत्तीस गढ़ में उसे गत चुनाव में 4 प्रतिशत वोट मिले । वहां बसपा के एक विधायक भी हैं। जन समर्थन की दृष्टि से जब दो प्रतिस्पर्धी दलों के बीच में अंतर कम हो तो छोटे दल दही के जामन का काम करते हैं जैसे बिहार में राम विलास पासवान का दल। 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने राजद और जदयू के साथ चुनावी तालमेल किया था। 243 सदस्यों वाली विधान सभा की 40 सीटें कांग्रेस को तालमेल में मिली थी। कांग्रेस उन में से 27 सीटें जीत भी गई जबकि 2010 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस महज 4 सीटों पर ही जीत पाई।यानी सहयोगी दलों ने 4 सीटों वाली पार्टी को लड़ने के लिए 40 सीटें दीं।

यदि कांग्रेस से ऐसी ही उदारता की उम्मीद बसपा तीन राज्यों के चुनावों के लिए कर रही है तो यह अनुचित भी नहीं है। बीते दिनों उत्तर प्रदेश में एक विधान सभा और तीन लोक सभा चुनाव क्षेत्रों में उप चुनाव हुए। सभी क्षेत्रों में राजग की हार इसलिए संभव हुई क्योंकि विरोधी दलों ने मिल कर चुनाव लड़ा। इस स्थिति से पार पाने के लिए राजग प्रयत्नशील है। बसपा मानती है कि उस जीत में सबसे अधिक योगदान उसी का था । भाजपा विरोधी दलों का यह मानना है कि यदि अगले चुनाव में केंद्र से मौजूदा सरकार को हटाना है तो ऐसी ही एकता चाहिए। इस स्थिति का मायावती पूरा राजनीतिक फायदा उठाना चाहती हैं। उप चुनावों के नतीजों से उप्र में चुनावी संभावनाओं को लेकर राजग में मायूसी छाई तो मौजूदा घटनाक्रम से राजग में कुछ उत्साह का संचार होना स्वाभाविक है।

फिर भी यदि कांग्रेस,बसपा और सपा के बीच सीटों का तालमेल हो गया तो तब राजग के लिए बड़ी ंिचंता की बात होगी। लेकिन मायावती की राजनीतिक सौदेबाजी के चलते गठबंधन नहीं हुआ तो फिर राजग के लिए राह आसान हो जाएगी। इस बीच यह भी कहा जा रहा है कि राजग ने अपने ब्रहमास्त्र का तो अभी तक इस्तेमाल ही नहीं किया है। मंडल आरक्षण के 27 प्रतिशत कोटे को तीन भाग में बांटने का यदि उसका काम हो गया तो कांग्रेस-सपा-बसपा गठबंधन का सपना टूट सकता है।
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने 2011 में ही केंद्र सरकार से यह सिफारिश की थी कि 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण का उप वर्गीकरण कर दिया जाना चाहिए ताकि पिछडे़ समुदाय की सभी जातियों को समान रूप से आरक्षण का लाभ मिल सके। उप वर्गीकरण के लिए पिछले साल 2 अक्तूबर को कंेद्र सरकार ने जस्टिस जी.रोहिणी की अध्यक्षता में आयोग बनाया। आयोग नवंबर में अपनी रपट सौंपेगा। यदि ऐसा हुआ तो अगले चुनाव में इसका असर देखा जा सकता है।यदि ऐसा नहीं हुआ तो फिर राजग को अपने तरकश के किसी और तीर का सहारा लेना पड़ेगा। उप वर्गीकरण के बाद 27 में से 18 प्रतिशत कोटे वाले पिछड़ों की सहानुभूति राजग के प्रति बढ़ सकती है। अति पिछड़ों के नेताओं का यह आरोप रहा है कि आरक्षण का लाभ मजबूत पिछड़े ही अधिक उठाते रहे हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)