कानून बड़ा है या नैतिकता ?

जिन मसलों पर संसद में खुली बहस के बाद कानून बनाया जाना चाहिए और जिन पर आम जनता की राय को सर्वाधिक महत्व दिया जाना चाहिए, उन मसलों पर भी पांच-सात जज लोग अपना फतवा जारी कर देते हैं।

New Delhi, Sep 28 : सर्वोच्च न्यायालय ने इतने महत्वपूर्ण मुद्दों पर एक साथ फैसले दे दिए हैं कि उन सब पर एक साथ टिप्पणी कैसे की जाए ? आधार, अनुसूचितों की पदोन्नति, मस्जिद और नमाज़ तथा विवाहेतर शारीरिक संबंधों की छूट आदि ऐसे गंभीर और उलझे हुए मामले हैं कि इन पर सर्वसम्मति होनी काफी मुश्किल है। अदालत के फैसलों को लोग मान ही लें, यह जरुरी नहीं है। सैकड़ों कानून ऐसे हैं, जो बस हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं। उनका पालन उनके उल्लंघन द्वारा होता है।

कुछ मामले ऐसे हैं, जिनके बारे में कोई कानून नहीं है लेकिन उनका पालन किसी भी कानून से ज्यादा होता है। इसीलिए सदियों से दार्शनिक लोग इस प्रश्न पर सिर खपाते रहे हैं कि कानून बड़ा है या नैतिकता ? लोग कानून को ज्यादा मानते हैं या नैतिकता को ? कानून के उल्लंघन पर सजा तभी मिलती है, जबकि आप पकड़े जाएं और आपके विरुद्ध अपराध सिद्ध हो जाए लेकिन अनैतिक कर्म की सजा से वे ही डरते हैं, जो भगवान के न्याय में या कर्मफल में विश्वास करते हैं। अब हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने द्विपक्षीय सहमति से होनेवाले काम-संबंध की छूट दे दी है। इसे कानून और नीतिशास्त्रों में अभी तक व्यभिचार कहा जाता रहा है।

अदालत का जोर सहमति शब्द पर है। सहमति याने रजामंदी। क्या विवाह अपने आप में सतत और शाश्वत सहमति नहीं है ? यदि पति-पत्नी इस रजामंदी को जब चाहें, तब भंग करके किसी के साथ भी सहवास करें तो परिवार नाम की संस्था तो जड़ से उखड़ जाएगी। व्यभिचार करने पर जो छूट पुराने ब्रिटिश कानून में सिर्फ औरतों को थी, उसे रोकने की बजाय अब हमारी अदालत ने वह छूट पुरुषों को भी दे दी है। इसके अलावा अनुसूचितों में संपन्नों और सुशिक्षितों (मलाइदार तबकों) को आरक्षण से बाहर रखने का फैसला उचित है। मोबाइल सिम, स्कूल, बैंक, परीक्षा आदि के लिए आधार की अनिवार्यता खत्म करके अदालत ने उसकी स्वीकार्यता बढ़ा दी है।

नागरिकों की निजता भी ‘आधार’ से भंग न हो, इस पर अदालत ने पूरा जोर दिया है। नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद का होना जरुरी है या नहीं, इस प्रश्न को भी अदालत ने अयोध्या-विवाद से अलग कर दिया है। आश्चर्य है कि जिन मसलों पर संसद में खुली बहस के बाद कानून बनाया जाना चाहिए और जिन पर आम जनता की राय को सर्वाधिक महत्व दिया जाना चाहिए, उन मसलों पर भी पांच-सात जज लोग अपना फतवा जारी कर देते हैं। इन फतवों को जागरुक नागरिक चुनौती दें, यह भी जरुरी है।

(वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)