दलितों ने पापड़ बिलवाए

देश में दलितों की संख्या 18 प्रतिशत मानी जाती है और वे थोक में वोट डालते हैं।

New Delhi, Aug 04 : वोट की राजनीति नेताओं को कैसे-कैसे पापड़ बिलवाती है, इसका प्रमाण है, वह कानून जो दलितों के बारे में अब इसी सत्र में लाया जाएगा। इस नए कानून संशोधन के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले को ताक पर रख दिया जाएगा, जिसके अंतर्गत पुराने दलित अत्याचार निवारण कानून (1989) में सुधार किया गया था। अदालत ने 20 मार्च को फैसला दिया था कि इस कानून में तीन सुधार किए जाएं।

पहला, किसी भी दलित पर अत्याचार की थाने में प्रथम सूचना रपट लिखवाने के पहले उसकी जांच की जाए। दूसरा, किसी भी आरोपी को गिरफ्तार करने के पहले, यदि वह सरकारी कर्मचारी हो तो उसके अफसर से अनुमति ली जाए। तीसरा, आरोपी को अग्रिम जमानत की सुविधा मिले।

मोटे तौर पर ये तीनों संशोधन तर्कसंगत लगते हैं लेकिन वर्तमान सरकार के दलित मंत्रियों ने इस पर हंगामा खड़ा कर दिया। विपक्ष ने कहा कि मोदी सरकार अदालत के कंधे पर रखकर अपनी जातिवादी बंदूक चला रही है। इसके अलावा राज्यों के चुनाव सिर पर हैं। देश में दलितों की संख्या 18 प्रतिशत मानी जाती है और वे थोक में वोट डालते हैं।

जाहिर है कि कोई भी सरकार अपनी टांग क्यों तुड़वाएगी ? यह ठीक है कि अदालत के सुधार लागू होते तो इस कानून का डर काफी घट जाता। शायद दलितों पर अत्याचार बढ़ जाते। हालांकि यह कानून खुद अत्याचार को बढ़ावा देता है। कई दलित इसका दुरुपयोग भी करते हैं और इस कठोर कानून के बावजूद इन मुकदमों में मुश्किल से 15 प्रतिशत अपराधी सजा पाते हैं। जरुरी यह है कि देश में समता का वातावरण पैदा किया जाए। सिर्फ कानून से यह भेद-भाव समाप्त नहीं हो सकता। हमारे देश में जात-तोड़ो आंदोलन बड़े जोरों से चलना चाहिए। लोगों को जातीय उपनाम हटाने का संकल्प करना चाहिए। इसके अलावा शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम का फासला घटना चाहिए। एक मजदूर और एक मेनेजर की तनखा में 10 गुने से ज्यादा अंतर नहीं होना चाहिए।

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)