सरकार का राष्ट्रविरोधी काम

यदि आज डाॅ. लोहिया और डाॅ. आंबेडकर जिंदा होते तो वे इस जातीय जन-गणना का मुझसे भी ज्यादा और सख्त विरोध करते, क्योंकि वे भारत से जातिवाद का उन्मूलन करना चाहते थे।

New Delhi, Sep 03 : मुझे बड़ा अफसोस है कि अपने आप को राष्ट्रवादी कहने वाली यह मोदी सरकार ऐसा राष्ट्रविरोधी काम करने जा रही है, जो अब तक की किसी भी सरकार ने नहीं किया। सरकार ने घोषणा की है कि वह अगले तीन साल में पिछड़ी जातियों की जन-गणना करवा देगी। 2021 की जन-गणना में यह काम पूरा हो जाएगा। जब 2011 की जनगणना चल रही थी तो मनमोहन सरकार ने भी ऐसी ही घोषणा की थी। मैंने उसका डटकर विरोध किया।

देश के लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं, विद्वानों, कलाकारों और पत्रकारों को जोड़कर हमने ‘सबल भारत’ नामक संगठन बनाया और 2010 में जातीय जन-गणना विरोधी आंदोलन खड़ा कर दिया। उसे सफलता मिली। जातीय जन-गणना अधबीच में रोक दी गई। लेकिन मोदी सरकार ने 2019 के चुनाव के खातिर यह इतना जबर्दस्त पैंतरा मारा है कि भारत में ‘सबल भारत’ के अलावा कोई इसका विरोध नहीं करेगा, क्योंकि सभी नेता और सभी दल थोक वोटों के गुलाम हैं।

यदि आज डाॅ. लोहिया और डाॅ. आंबेडकर जिंदा होते तो वे इस जातीय जन-गणना का मुझसे भी ज्यादा और सख्त विरोध करते, क्योंकि वे भारत से जातिवाद का उन्मूलन करना चाहते थे। उन्होंने आरक्षण का इस्तेमाल दवाई की तरह करने के लिए कहा था लेकिन हमारे नेताअेां ने इसे ही अपनी दाल-रोटी बना लिया है।

जातीय जन-गणना की शुरुआत अंग्रेज ने 1871 में की थी ताकि 1857 में बनी भारतीय समाज की एकता को भंग किया जा सके। महात्मा गांधी के विरोध के कारण 1931 में यह राष्ट्रविरोधी कार्रवाई बंद हुई। अब 87 साल बाद एक दूसरा गुजराती इस कलंक को अपने माथे पर ढोएगा। अब तक भारत में लगभग 30 हजार जातियां और उप-जातियों का अनुमान है। वैज्ञानिक ढंग से जातीय जन-गणना हो ही नहीं सकती। यही बात 1931 में अंग्रेज सेंसस कमिश्नर डाॅ. जे.एच. हट्टन ने कही थी और 1955 में पिछड़ा आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर ने भी कही थी। काका ने राष्ट्रपति को जो पत्र लिखा था, उसमें कहा गया था कि आरक्षण की हमारी दवा रोग से भी ज्यादा खतरनाक है।

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)