वो पत्रकारिता के नही राजनैतिक विचारो के ग़ुलाम हैं

रविश अब चाहकर भी मोदी के किसी भले काम की तारीफ नही कर सकते क्योंकि उन्हें डर है कि कोई उनकी लाइन के मुकाबले बड़ी लाइन न खीच दे।

New Delhi, Sep 04 : गांधी के युग मे भी कोई दूसरा गांधी नही हो सका। गांधी की अहिंसा , उनकी चालबाजी , उनका हठयोग , उनके एक्सपेरिमेंट ,उनकी राजनीति , उनका अर्थशास्त्र ,उनकी जीवन शैली की नकल कोई नही कर पाया । उनकी मौत के बाद तो वे किंवदंती बन गए और लोगो ने मान लिया कि गांधी का कोई बराबरी नही। लेकिन उनके जीवन काल मे ही नाथूराम ने भी एक लकीर खींची। गांधी और उनके सिद्धांतो के विपरीत। आज जब भी गांधी याद किये जाते हैं तो गोडसे भी याद आ जाते हैं। हर काल मे ऐसा होता रहा है।

किसी की किसी से तुलना न तो संभव है ना उपयुक्त । मैं देश की पत्रकारिता जो लेकर ऐसा ही सोचता हूँ । प्रभाष जोशी ने एक लाइन खींची उस लाइन पर चलने वाले बहुत से पत्रकार होंगे ।उनमें भी लोभ रहा होगा कि वे प्रभाष जोशी बन जाएं ।लेकिन यह सम्भव नही था । मोदी के खिलाफ सबसे पहले रविश ने स्टैंड लिया। विरोध का हर तरीका अपनाया। उसने अपनी तरह का एक लाइन खींचा । अब गली मोहल्ले से लेकर उपेक्षित और गर्दिश में चल रहे राष्ट्रीय पत्रकार भी रविश से मुकाबला करने की कोशिश कर रहे हैं। तर्क कुतर्क और रविश के सिद्धांतों की नकल करके। कुछ लोग सुधीर चौधरी की भी नकल कर रहे हैं लेकिन एक दो मर्तबा चर्चा में आने के बाद उन्हें पैरासाइट यानी दूसरे के विचारों से खुराक लेने वाला ही माना जाने लगा है।

विनोद दुआ हो या राजदीप सरदेसाई , रविश की लाइन छोटी नही होगी ।उसी तरह सुधीर चौधरी ने जो लाइन खींची है वह भी छोटा नही होगा क्योंकि ये लोग अपने सिद्धांत के प्रीमियर हैं। अब रविश की नकल करते हुए कुछ पत्रकार मोदी के खिलाफ न केवल जहर उगलते हैं बल्कि मल मूत्र भी मुह से निकाल देते हैं। उन्हें रवीश से आगे जो निकल जाने की चाहत है। सुधीर चौधरी से आगे बढ़ने को व्याकुल लोग (पत्रकार ) मल मूत्र निगल रहे हैं ।सबसे अधिक नुकसान तो पत्रकारिता का हो रहा है। अब तो जो थोड़ा बुद्धिजीवी है वह भी इसी खेमेबंदी का शिकार हो गया है। इससे स्वतंत्र विचारो का प्रवाह रुक गया है। खेमेबंदी में लोगो के जुड़ाव का दबाव भी उसके नेतृत्वकर्ता पर बढ़ गया है।

रविश अब चाहकर भी मोदी के किसी भले काम की तारीफ नही कर सकते क्योंकि उन्हें डर है कि कोई उनकी लाइन के मुकाबले बड़ी लाइन न खीच दे।सुधीर चौधरी भी डरे हुए हैं कि उनका सिंहासन खतरे में न पड़ जाए । खेमे में खांचे हुए पत्रकार भी डरे हुए हैं कि सही गलत का ईमानदारी से विश्लेषण कर दिया तो पलटू या थाली का बैंगन न घोषित कर दिया जाए । 90 के दशक में जिलाधिकारी जब महीनवारी प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाते थे तो डरे हुए रहते थे कि कौन पत्रकार उनका पजामा ढीला कर दे लेकिन अब तो बीट के पत्रकार सिर्फ वही लिखते हैं जो जिलाधिकारी से लेकर सूबे के राजा लिखाना चाहते हैं । मीडिया संस्थान भी खेमे में खांच दिए गए हैं। पत्रकार ही नही मीडिया संस्थान भी खींचे गए लाइन को बचाने में लगे हैं।

सच तो यह है दोस्तो कि तथाकथित बड़े पत्रकार सत्ता या विरोधी पक्ष के बेनिफिशिरी (लाभुक ) हैं । वे पत्रकारिता के ग़ुलाम नही राजनैतिक विचारो के ग़ुलाम हैं और हम छोटे शहरों के छोटे पत्रकार उनके समर्थन और विरोध में बेवजह लाठियां भांज रहे हैं। पत्रकारिता को छोटे शहरों के छोटे पत्रकार ही बचा के रखे हुए हैं। भरोसा रखिये पत्रकारिता तभी जिंदा रहेगी जब तक हम पत्रकारिता कर रहे हैं । पत्रकारिता के खुदा न तो रविश हैं ना सुधीर चौधरी।
” हर जर्रा चमकता है अनवारे इलाही से
हर सांस ये कहती है ,हम हैं तो खुदा भी है।

(वरिष्ठ पत्रकार योगेश किसलय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)