आप किस पार्टी के पत्रकार हैं जी? इस सवाल ने आज देश के पूरे मीडिया को जकड़ रखा है

भारतीय पत्रकारिता हर दौर में सियासत का एक हिस्सा रही है। इसलिए पुरानी पीढ़ी के लोग नई पीढ़ी को कोसने के बजाए उन्हे सही राह दिखाने की कोशिश करें।

New Delhi, Aug 24 : आप किस पार्टी के पत्रकार हैं जी? इस सवाल ने आज देश के पूरे मीडिया को जकड़ रखा है। दूसरों की क्या बात करें, हमारे पेशे के ही कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी “गोदी मीडिया” के नाम ले-ले कर अपनो को ही बदनाम करने में जुटे हैं। लेकिन क्या ऐसा दौर पहली बार आया है, क्या पहले नेताओं और धर्मनिरपेक्ष पत्रकारों के रिश्ते नहीं रहे? क्या सत्ता के खेल में गुजरे दौर के धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले पत्रकारों ने रोल नहीं निभाया है? फिर बदनाम इस दौर की पत्रकारिता ही क्यों है? हो सकता है इसकी कोई ठोस वजह हो और हमारी गलती भी, लेकिन जब निष्पक्ष, ईमानदार और धर्मनिरपेक्ष पत्रकार कहे जाने वाले कुलदीप नैयर अब हमारे बीच नहीं रहें हैं तो उन्हें याद करते हुए ये बताना लाजमी हो जाता है कि कैसे उन्होने दो बार देश के प्रधानमंत्री चुनते वक्त राजनैतिक भूमिका निभाई थी, और ये बात खुद कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा में लिखी है।

पहली घटना – 1964 में नेहरू की मृत्यु हुई और उसके अगले दिन ही ये खबर आई कि मोरारजी देसाई ने पीएम पद के लिए अपनी दावेदारी ठोक दी है। ये ख़बर कुलदीप नैयर ने जारी की थी, तब वो यूएनआई में काम करते थे। इस ख़बर का असर ये हुआ कि कांग्रेस के नेताओं के बीच ये धारणा बन गई कि मोरारजी देसाई सत्ता के इतने लालची हैं कि उन्होने नेहरू के अंतिम संस्कार होने का भी इंतजार नहीं किया। नतीजा ये हुआ कि शास्त्री जी ने मोरारजी को पछाड़ कर कुर्सी हासिल कर ली। खुद नैयर ने लिखा है कि खबर के बाद कामराज ने संसद भवन में उन्हे धन्यवाद कहा था। जबकि शास्त्री जी नेता चुन लिए गए तो सबके सामने कामराज ने उन्हे गले लगा लिया था। नैयर ने लिखा है कि इस घटना की वजह से मोरारजी हमेशा उनसे नफरत करते रहे, खास बात है कि शास्त्री जी जब गृह मंत्री थे तब नैयर उनके साथ काम कर चुके थे और उनके बेहद करीबी थे, और पीएम बनने के बाद शास्त्री ने उन्हे अपना प्रेस एडवाइज़र बनाया।

दूसरी घटना – 1989 में जब राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार बन रही थी तब चंद्रशेखर नहीं चाहते थे कि वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने, वो खुद या देवीलाल को मौका देना चाहते थे। जब नेता के चुनाव का मौका आया तो वीपी सिंह ने देवीलाल के नाम का प्रस्ताव रखा। चंद्रशेखर ने उसका अनुमोदन किया और जब देवीलाल के बोलने की बारी आई तो उन्होने वीपी सिंह का नाम प्रधानमंत्री के तौर पर ऐलान कर दिया। हिंदुस्तानी सियासत की इस सबसे बड़ी चाल में चंद्रशेखर उलझ कर रह गए और राजा मांडा ने बाज़ी मार ली। बकौल कुलदीप नैयर देवीलाल को ऐसा करने के लिए खुद उन्होने मनाया था और इस पूरे घटनाक्रम की स्क्रिप्ट भी उन्होने ही लिखी थी। पीएम बनने के बाद वीपी सिंह ने कुलदीप नैयर को ब्रिटेन में भारत का उच्चायुक्त बना कर भेजा।

इन दोनों घटनाओं का उल्लेख करने के पीछे मेरा मकसद कुलदीप नैयर की नीयत पर सवाल उठाना नहीं है। मैं ये भी नहीं कह रहा कि एक पत्रकार को क्या जरूरत है कि वो किसी पार्टी के नेता चुनने के दौरान दांव पेंच खेले ? मैं ये भी नहीं कह रहा कि एक घाघ राजनीतिज्ञ की भूमिका निभाने के बाद भी कुलदीप नैयर ताउम्र निष्पक्ष, ईमानदार और धर्मनिरपेक्ष क्यों कहलाये ? मेरी नज़र में तो ये कुलदीप नैयर की काबिलियत है कि इतने बड़े सियासी फैसलों में उन्होंने देश का मुकद्दर लिखने में योगदान दिया। मैं सिर्फ इतना बताना चाहता हूं कि भारतीय पत्रकारिता हर दौर में सियासत का एक हिस्सा रही है। इसलिए पुरानी पीढ़ी के लोग नई पीढ़ी को कोसने के बजाए उन्हे सही राह दिखाने की कोशिश करें।

( टीवी पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)