माहवारी के मसले को फैशनेबुल बनाना चाहती हैं सेनेटरी नैपकीन कंपनियां ?

माहवारी की समस्या सेनेटरी नैपकीन से नहीं सुलझेगी. इसका समाधान जागरूकता में है और खून सोखने लायक पुराने और साफ-सुथरे सूती के कपड़े में है।

New Delhi, Jul 10 : पैड मैन फिल्म आने के बाद से माह1वारी का इश्यू अचानक फैशनेबुल हो गया है. हर शहर में महिलाएं सेनेटरी नैपकीन बांटने का अभियान चला रही हैं. जगह-जगह सेनेटरी नैपकीन वेंडिंग मशीन लग रहे हैं. नैपकीन बैंक बनाकर गरीब महिलाओं तक इसे पहुंचाने का अभियान चलाया जा रहा है. मगर क्या यह माहवारी की समस्या का समाधान है? इस रविवार को बिहार की राजधानी पटना में आयोजित एक आयोजन में गूंज संस्था के संस्थापक अंशु गुप्ता ने कहा कि उन्हें भय है, कहीं यह अभियान फैशनेबुल न बन जाये और इसके जरिये सेनेटरी नैपकीन कंपनियां ग्रामीण इलाकों में अपना बाजार खड़ा न करने की कोशिश करने लगे.

अंशु गुप्ता का यह भय वाजिब है. पैड मैन फिल्म देखने वालों ने भी इस बात को नहीं समझा कि फिल्म में पैड मैन ब्रांडेड सेनेटरी नैपकीन बांटने का अभियान नहीं चलाता, वह तो महिलाओं के लिए इस जरूरी चीज को सस्ता बनाने की कोशिश करता है, ताकि हर तबके की महिलाओं तक नैपकीन की आसानी से पहुंच हो सके. रियल पैड मैन अरुणाचलम मुरुगनाथन आज भी कोयंबटूर शहर में जयश्री इंडस्ट्रीज के नाम से अपनी कंपनी चलाते हैं, जो लो कॉस्ट सेनेटरी नैपकीन बनाने वाली मशीन तैयार करते हैं. दिलचस्प है कि वे इस मशीन को हर किसी को नहीं बेचते, वे सिर्फ स्वयंसेवी संगठनों को भी यह मशीन उपलब्ध कराते हैं, ताकि इसका बाजार नहीं बने. मगर उनके जीवन पर बनी पैड मैन फिल्म ने गाहे-बगाहे ब्रांडेड सेनेटरी नैपकीन कंपनियों के बाजार को ही बढ़ाने का काम किया है.

आखिर क्यों ब्रांडेड सेनेटरी नैपकीन माहवारी की समस्या का हल नहीं है. पटना में आयोजित बिहार डायलग-3 में बोलते हुए अंशु गप्ता ने कहा कि ब्रांडेड कंपनियों के उत्पाद बहुत महंगे होते हैं और गांवों में बसने वाली हमारी तीन चौथाई आबादी इसे खरीद नहीं सकतीं. और अगर बांट कर भी इसे गांव-गांव तक पहुंचाया जाये तो आप समझिये कि हर महीने सरकार का कितना खर्च होगा. और ये नैपकीन जब फेंके जायेंगे तो धरती के लिए कितना नॉन डिस्पोजेबल वेस्ट जमा होगा और उसका निष्पादन कैसे होगा. उन्होंने कहा कि नेपकीन को सस्ता करना भी इसका समाधान नहीं है, क्योंकि सस्ता करने से इसकी खपत की मात्रा बढ़ जाती है. यानी खर्चा वही रह जायेगा, वेस्ट बढ़ जायेगा.

अंशु का कहना था कि माहवारी की समस्या सेनेटरी नैपकीन से नहीं सुलझेगी. इसका समाधान जागरूकता में है और खून सोखने लायक पुराने और साफ-सुथरे सूती के कपड़े में है. हमें महिलाओं को माहवारी के दौरान बरती जाने वाली स्वच्छता के बारे में लगातार जागरूक करना होगा. इस पर जगह-जगह खुलकर बात करनी होगी और समाज में इसको लेकर जो टैबू है उस पर प्रहार करना होगा. माहवारी का समाधान स्वच्छ आदतों से मुमकिन है, किसी प्रोडक्ट से नहीं.
इस आयोजन में दूसरे वक्ताओं और प्रतिभागियों ने यह भी कहा कि आजकल गरीब लोगों के घरों में सूती कपड़ा आसानी से उपलब्ध नहीं होता. इस पर अंशु गुप्ता ने कहा कि यह सच्चाई है. मगर हमलोग इसका विकल्प खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं. हम उन घरों से पुराना सूती कपड़ा जुटाते हैं, जो इसे खरीदकर उपयोग करने की स्थिति में हैं. फिर उन्हें साफ कर सेनेटरी नैपकीन जैसा आकार देते हैं. फिर उसे गांवों में बंटवाते हैं. यह रियूजेबल है. इसे साफ कर फिर से इस्तेमाल किया जा सकता है.

असल बात यह है कि अगर सूती कपड़े को ठीक से इस्तेमाल किया जाये. उसे साबुन या सर्फ से साफ कर खुली धूप में सुखाया जाये और फिर उसे इस्तेमाल किया जाये तो इसमें कोई परेशानी नहीं है. खर्च भी कम है और स्वछ्छ भी है. इस आयोजन में एक वक्ता ने कहा कि आखिर मानवता हजारों साल से बिना सेनेटरी नैपकीन के जी तो रही थी. उस दौरान माहवारी के कारण तो मौतें नहीं होती थीं.
यह सच है कि स्वच्छता हमारे व्यवहार का विषय है. जागरूकता का विषय है, और माहवारी के मसले पर हमें खुली बातचीत करके सोशल टैबू से निकलने की जरूरत है. मगर आज तक इसे सेनेटरी नैपकीन बांटकर सेल्फी पोस्ट करने का फैशन बना लिया गया है. इससे बचने की जरूरत है.

(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के ब्लॉग से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)